Thursday 9 October 2014

रीढ़ की हड्डी


दिल और फेफड़े की तकलीफ पैदा करने वाली पीठ यानी रीढ़ संबंधी बीमारी कूबड़ प्राचीन काल से ही कौतूहल का विषय रहा है। अभी तक लोग इसे लाइलाज समझते रहे हैं जब कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में रीढ़ के विकार अर्थात् कूबड़ को रोग माना जाता है।
अध्ययनों के मुताबिक इस समय करीब एक फीसदी आबादी कूबड़ सहित रीढ़ के अन्य विकार से ग्रसित है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार स्पाइन में असमान्य वृद्धि के कारण रीढ़ में विकार पैदा हो जाता है। जिसकी अनदेखी से या तो कूबड़ हो सकता है या रीढ़ में अन्य तरह की विकृति हो सकती है।
जाने-अनजाने में गलत तरीके से उठने, बैठने, सोने, पढऩे आदि से व्यक्ति के सेहत पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। इसकी वजह से रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन और कम व पीठ में असहनीय दर्द की शिकायत होती है। हालांकि इसका कारण आनुवांशिक और गंभीर संक्रमण भी होता है, लेकिन मुख्य वजह बचपन से जवानी तक की दिनचर्या से जुड़ा है।
यदि शुरू से ही इस ओर ध्यान दिया जाए, तो रीढ़ की हड्डी की विकृति से बचा जा सकता है। सही ढंग से नहीं बैठना, बिस्तर पर लेटटकर पढऩा या टीवी देखना, गलत तरीके से बाइक चलाना आदि ऐसी क्रियाएं हैं, जिन्हें जाने-अनजाने सभी लोग अंजाम देते हैं। बचपन से ही यदि रीढ़ की हड्डी पर दबाव बनाने वाली कार्य किए जाएं, तो बड़े होते-होते उसमें विकृति आने की आंशका बढ़ जाती है। ऐसे में लोगों को अपनी दिनचर्या में रीढ़ की हड्डी का विशेष ध्यान रखते हुए कार्यों को अंजाम देना चाहिए।
शरीर को आकार और मजबूती प्रदान करने वाला रीढ़ यानी स्पाइन दरअसल लाठी की तरह सख्त और सीधा न होकर लचीला होता है। ये खंड-खंड में बंटे होते हैं और एक-दूसरे से शॉक अब्जार्बर द्वारा जुड़े होते हैं। प्रत्येक खंड को कशेरूकी दंड या मेरूदंड कहते हैं। इसके कारण ही रीढ़ में लचीलापन होता है। रीढ़ में समस्या दो तरह से शुरू हो सकती है। एक तो यदि किसी कारणवश डिस्क की स्थिति बिगड़ जाए। दूसरे मेरूदंड में असामान्य वृद्धि होने लगे।
कूबड सहित रीढ़ के अन्य विकार का कारण मेरूदंड में असामान्य वृद्धि होना है। सामान्यत: बचपन से ही उम्र बढऩे के साथ-साथ मेरूदंड में वृद्धि बराबर अनुपात में होती है। जिससे शरीर में संतुलन कायम रहता है लेकिन विपरीत परिस्थिति में किसी कारणवश मेरूदंड में असामान्य वृद्धि और दूसरे हिस्से के मेरूदंड में कम वृद्धि हो। इस अनियमित वृद्धि के कारण कूबड़ सहित रीढ़ में अन्य विकार पैदा हो जाते हैं। जिससे शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता  है।
कूबड़ को अंग्रेजी में स्कोलियोसिस कहते हैं, मेरूवक्रता यानी मेरूदंड में विकृति का पता यदि शुरू से चल जाए तो इलाज काफी सरल हो जाता है। मैग्नेटिक रेजोनेंस इंमेजिग या एमआरआई रीढ़ के विकारों का पता लगाने के लिए सबसे अच्छी जांच तकनीक है। कई एमआरआई में मेरूवक्रता की स्थिति और उसके कारण नसों पर पडऩे वाले दबावों को आवर्धित रूप से देखना संभव हो जाता है। इससे चिकित्सा में सुविधा होती है।
मेरूवक्रता के इलाज में पहले परम्परागत शल्य क्रिया का इस्तेमाल होता था। इसमें 3 से 5 घंटे का समय व 4 से 5 बोतल खून लगता था। साथ ही अल्परक्त दाब पर बेहोश रहना पड़ता था, लेकिन अबऐसा नहीं है। यह काम माइक्रो सर्जरी से सफलतापूर्वक किया जा रहा है। इसमें बहुत ही छोटा चीरा लगाना पड़ता है। कम समय लगता है।
रीढ़ की हड्डी के टेढ़ापन को विशेषज्ञों ने कई श्रेणियों में बांटा है। इसके टेढ़े होने के अलग-अलग कारण और प्रभाव हैं। यदि इन पर गौर किया जाए, तो समय रहते इसे रोका जा सकता है या फिर इनका उचित इलाज कराया जा सकता है।
जिस व्यक्ति की रीढ़ की हड्डी सामने सो सीधी और किनारे से झुकी हुई हो, तो समझना चाहिए कि वह स्कोलियोसिस का शिकार है। ऐसी विकृति का शिकार अधिकांशत: महिलाएं होती हैं और यह आनुंवांशिक होता है। यह देखने में बुरा तो लगता ही है, इसके हृदय व फेफड़े पर असर पडऩे की आंशका रहती है।
इसमें गर्दन व कमर से आगे की ओर झुकाव देखने में आता है। यदि कमर में पीछे की ओर झुकाव बढ़ जाए, तो उसे आम भाषा में कूबड़ निकलना कहते हैं।
कुछ बच्चों में पैदा होने के समय से ही रीढ़ की हड्डी टेढ़ी होती है। बड़ा होने के साथ उसमें टेढ़ापन बढ़ता चला जाता है। इसे कंजैनिटल स्कोलियोसिस या काईफोसिस कहते हैं। इसकी वजह बचपन से ही गलत तरीके से बैठने या सोने की आदत है। इसके अलावा, बोन टीबी, नसों व मांसपेशियों की बीमारियां भी जिम्मेदार हैं। इस प्रकार के टेढ़ेपन से नसों पर दबाव पड़ता है, जो पैरों के कमजोर होने का कारण हो सकता है। इससे लकवा होने की आशंका बनी रहती है।

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