Thursday 11 October 2018

नवरात्रि में क्यों खेला जाता है गरबा?


शारदीय नवरात्रि आते ही गरबे की धूम छा जाती है। गुजरात का पारम्पारिक नृत्य अब धीरे धीरे पूरे देश में नवरात्रि के दौरान बहुत ही उत्साह के साथ खेला जाता है। जानिए, क्यों नवरात्रि में अखंड ज्योत जलाई जाती है.. बहुत से लोग तो ऐसे हैं जो नवरात्रि का इंतजार ही इसलिए करते हैं क्योंकि इस दौरान उन्हें गरबा खेलने, रंग-बिरंगे कपड़े पहनने का अवसर मिलेगा। नवरात्रि में गरबा खेलना और गरबे की रौनक का आनंद उठाना तो ठीक है लेकिन क्या आप जानते हैं कि गरबा खेलने की शुरुआत कहां से हुई और नवरात्रि के दिनों में ही इसे क्यों खेला जाता है? गरबा और नवरात्रि का कनेक्शन आज से कई वर्ष पुराना है। पहले इसे केवल गुजरात और राजस्थान जैसे पारंपरिक स्थानों पर ही खेला जाता था लेकिन धीरे-धीरे इसे पूरे भारत समेत विश्व के कई देशों ने स्वीकार कर लिया। घट स्थापना से शुरु दीप गर्भ के स्थापित होने के बाद महिलाएं और युवतियां रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर मां शक्ति के समक्ष नृत्य कर उन्हें प्रसन्न करती हैं। गर्भ दीप स्त्री की सृजनशक्ति का प्रतीक है और गरबा इसी दीप गर्भ का अपभ्रंश रूप है। घट स्थापना गरबा को लोग पवित्र परंपरा से जोड़ते हैं और ऐसा कहा जाता है कि यह नृत्य मां दुर्गा को काफी पसंद हैं इसलिए नवरात्रि के दिनों में इस नृत्य के जरिये मां को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। इसलिए घट स्थापना होने के बाद इस नृत्य का आरंभ होता है।  इसलिए आपको हर डांडिया या गरबा खेलते वक्त महिलाएं सजे हुए घट के साथ दिखाई देती है। जिस पर दिया जलाकर इस नृत्य का आरंभ किया जाता है। यह घट दीपगर्भ कहलाता है और दीपगर्भ ही गरबा कहलाता है। क्यों किया जाता है तीन ताली का उपयोग आपने देखा होगा कि जब महिलाएं समूह बनाकर गरबा खेलती हैं तो वे तीन तालियों का प्रयोग करती हैं। इसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण कारण विद्यमान है। क्या कभी आपने सोचा है गरबे में एक-दो नहीं वरन् तीन तालियों का ही प्रयोग क्यों होता है? ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवों की इस त्रिमूर्ति के आसपास ही पूरा ब्रह्मांड घूमता है। इन तीन देवों की कलाओं को एकत्र कर शक्ति का आह्वान किया जाता है। इसलिए तीन ताली का प्रयोग किया जाता है।

Wednesday 10 October 2018

नवरात्रि - देवियों के नौ रूप एवं नारी सम्मान


भारत में नवरात्र का पर्व, एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है. नवरात्रि संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है 9 रातें. यह त्यौहार साल में दो बार आता है. एक शारदीय नवरात्रि और दूसरा है चैत्रीय नवरात्रि. यह तीन हिंदू देवियों देवी पार्वती, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती के नौ विभिन्न स्वरूपों की उपासना के लिए निर्धारित है. इन्हें नवदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है. तो आइये इन पंक्तियों के साथ देवियों के विभिन्न स्वरुपों को जानने का प्रयत्न करते हैं-

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता।।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


शैलपुत्री

शैल पुत्री माता को नौ दुर्गा का पहला रूप माना जाता है. इनकी पूजा नवरात्रि के पहले दिन की जाती है. पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण इनका नाम शैल पुत्री पड़ा. मां शैल पुत्री के इस रूप में दाएं हाथ में त्रिशूल और बाए हाथ में कमल सुशोभित है. वैसे तो माता को पिछले जन्म में दक्ष की भी पुत्री माना जाता है. माता को भगवान शिव की पत्नी भी कहा जाता है. माता शैल पुत्री के बारे में कहा जाता है कि अपने पिता दक्ष के द्वारा भगवान शिव का अपमान करने के बाद उन्होंने खुद को भस्म कर दिया था.
निश्चित रुप से भगवान शिव के लिए आदर का भाव रखने वाली माता शैलपुत्री से आज के समाज को सीखने की जरुरत है. अक्सर देखा जाता है कि आदर भाव तो छोडि़ए, लोग एक पल नहीं लगाते किसी को कुछ कहने के लिए. काश माता शैलपुत्री के भाव से नासमझ लोग कुछ सीख सकते.

देवी ब्रह्मचारिणी

नौ दुर्गा का दूसरा रूप मानी जाने वाली ब्रह्मचारिणी माता की पूजा नवरात्रि के दूसरे दिन की जाती है. माना जाता है कि माता ब्रह्मचारिणी की उपासना करने से संयम की वृद्धि और शक्ति का संचार होता है. नवरात्रि में भक्त मां की पूजा इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल बन जाए और वह किसी प्रकार आने वाली परेशानी से निपट सकें. मां ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में गुलाब और बाएं हाथ में कमंडल है. मां ब्रह्मचारिणी को पर्वत हिमवान की बेटी कहा जाता है.
माता के बारे में कहा जाता है कि नारद मुनि ने उनके लिए भविष्यवाणी की थी कि उनकी शादी भोले नाथ से होगी, जिसके लिए उन्हें कठोर तपस्या करनी होगी. चूंकि माता को भगवान शिव से ही शादी करनी ही थी, इसलिए वह तप के लिए जंगल चली गई थीं.
इस कारण ही उनको ब्रह्मचारिणी कहा जाता है. आज देखा जाए तो हर घर में कलह और द्वेष का माहौल है. लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं. परिवारों में सुख-समृद्धि का अकाल सा पड़ा दिखाई देता है. मां ब्रह्मचारिणी से प्रार्थना है कि वह ऐसे अशांत मन वाले भक्तों के मन में शांति और तप भाव का संचार करें.

देवी चंद्रघंटा

माता चंद्र घंटा को नवदुर्गा का तीसरा रूप माना जाता है. नवरात्रि के तीसरे दिन इनकी पूजा की जाती है. माता चंद्रघंटा के सर पर आधा चंद्र है, इसलिए माता को चंद्र घंटा कहा जाता है. माता चंद्र घंटा का यह रूप हमेशा अपने भक्तों को शांति देने वाला और कल्याणकारी होता है. वह हमेशा शेर पर विराजमान होकर संघर्ष के लिए खड़ी रहती हैं. माता चंद्र घंटा को हिम्मत और साहस का रूप भी माना जाता है, लेकिन इसके बावजूद समाज में जिस तरह से लोगों के अंदर अशांति, असहजता और अकारण किसी गलत रास्ते पर चलने का भाव तेजी से पनपता जा रहा है, वह चिंता का विषय है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस नवरात्र में माता चंद्रघंटा अपने भक्तों का कल्याण करेंगी, ताकि वह सही रास्ते पर चल सकें.

माँ कूष्मांडा

माता का चौथा रूप कूष्मांडा है. इनकी पूजा नवरात्री के चौथे दिन की जाती है. इन्हें ब्रह्मांड की जननी के रूप में जाना जाता है. उनके प्रकाश से ही ब्रह्मांड बनता है. माता कुष्मांडा सूर्य के जैसे सभी दिशाओं मे अपनी चमक बिखेरती रहती हैं. शेर पर बैठी माता कूष्मांडा के पास आठ हाथ हैं. माता कुष्माडा से हम सबको प्रार्थना करनी चाहिए कि इस नवरात्र में वह संसार मे फैले अंधेरे को अपने प्रकाश से प्रकाशमय कर दें, ताकि भक्तों का कल्याण हो सके.

स्कंदमाता

स्कन्दमाता को नौ देवी का पांचवा रूप कहा जाता है. इनकी पूजा पांचवे दिन होती है. भगवान स्कन्द 'कार्तिकेयÓ की माता होने की वजह से इन्हें स्कन्द माता का नाम मिला है. माता की चार भुजायें हैं. कमल पर विराजमान माता सफेद रंग की हैं और उनके दोनों हाथों में कमल रहता है. इस वजह से माता को पद्मासना और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है. स्कन्दमाता के बारे मेंं कहा जाता है कि वह अपने भक्तों का कल्याण करती हैं. माता से प्रार्थना है कि वह समाज में चारों ओर फैले अंध विश्वास को हर लेंगी, ताकि रूढिय़ों से परे हटकर भक्तगण मनुष्यता की राह पर अग्रसर हो सकें.

माँ कात्यायनी

कात्यायनी मां को दुर्गा का छठा रूप माना जाता है. इनकी पूजा नवरात्रि के छठें दिन की जाती है. कात्यायनी माता अपने सभी भक्तों की मुराद पूरा करती हैं. इनको पापियों का नाश करने वाली देवी भी कहा जाता है. कहते हैं कि एक संत को देवी मां की कृपा प्राप्त करने के लिए काफी लंबा तप करना पड़ा था. शेर पर सवार माता की चार भुजायेंं हैं. बायें हाथ में कमल के साथ तलवार और दाहिने हाथ में स्वास्तिक है. आज जब समाज में पापियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, तो माता से प्रार्थना है कि वह एक बार फिर से आकर तेजी से पनपे पापियों का नाश कर दें, ताकि समाज में अराजकता न हो.

माँ कालरात्रि

कालरात्रि माता को नौ दुर्गा का सातवां रूप माना जाता है. उनकी पूजा सातवें दिन होती है. माता कालरात्रि के बाल बिखरे हुए होते हैं. माता की तीन आंखें हैं, तो उनके एक हाथ में तलवार होती है. दूसरे हाथ से वह आशीर्वाद देती हैं. बायें हाथ में मशाल लेकर वह अपने भक्तों को निडर बनने का सन्देश देती हैं. माता को शुभ कुमारी भी कहते हैं, जिसका अर्थ हमेशा अच्छा करने वाली होती है. आज जब पूरी दुनिया में नशाखोरी, चोरी, डकैती जैसी बुरी आदतें तेजी से अपने पैर पसारती जा रही हैं, तब माता कालरात्रि के एक और जन्म की जरुरत लगती है.

महागौरी

मां महागौरी को आठवीं दुर्गा कहा जाता है. सफेद गहने और वस्त्रों से सजी मां महागौरी की तीन आंखे और चार हाथ हैं. माता के ऊपर के बायें हाथ में त्रिशूल और ऊपर के दाहिने हाथ मे डफली है. कहा जाता है कि एक बार मां महागौरी का शरीर धूल की वजह से गन्दा हो गया और साथ ही पृथ्वी भी गन्दी हो गई. तब भगवान भोले ने गंगा जल से धूल को साफ किया तो उनका पूरा शरीर उज्जवल हो गया. इस कारण उन्हें महागौरी कहा जाता है. यह भी कहा जाता है कि गौरी मां की पूजा से वर्तमान अतीत और भविष्य के पाप से मुक्ति मिल जाती है. इसलिए समाज के उन लोगों को जो कुकर्मों की कालिख से पुते पड़े हैं, इस नवरात्रि में माता महागौरी की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, ताकि उनका मन स्वच्छ हो सके और वह नेक रास्ते पर चल सकें.

सिद्धिदात्री

सभी प्रकार की सिद्धियां देने वाली माता सिद्धिदात्री को मां दुर्गा का नौवां स्वरुप माना जाता है. कहा जाता है कि भगवान शिव ने सिद्धिरात्रि कि कृपा से ही सारी सिद्धियों को प्राप्त किया था. कमल पुष्प पर आसीन होने वाली मां सिद्धरात्रि की चार भुजायें हैं. माता सिद्धिदात्री की पूजा नौवें दिन की जाती है. इनकी पूजा करने से माता किसी को निराश नहीं करती हैं. उम्मीद है माता के भक्त भी इस नवरात्रि पर प्रतिज्ञा लेंगे कि वह सही रास्ते पर आगे बढ़ेंगे.
वैसे तो नवरात्रि की पूजा की परंपरा सदियों से चली आ रही है, किन्तु इस पूजा का उद्देश्य नारी जाति की सुरक्षा से भी गहरे तक जुड़ा है. शायद  इसलिए ही कहा गया है कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताÓ. अर्थात जहां नारी का सम्मान होता है, वही देवी देवताओं का वास होता है.