Saturday 24 January 2015

बसंत पंचमी


पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना बसंत के आगमन का सूचक है। इस प्रकार बसंत का मौसम जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा और विश्वास जगाता है। यह भाव बनाए रखने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि ज्ञान और विद्या की देवी की पूजा के साथ बसंत ऋतु का स्वागत किया जाता है ।
माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी बसंत पंचमी के रूप में मनाई जाती है। यह बसंत ऋतु के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। यह दिन सरस्वती की जयंती के रूप में मनाया जाता है। इसे श्री पंचमी भी कहते हैं। इस दिन ज्ञान की प्राप्ति के लिए देवी सरस्वती की पूजा की परंपरा है। इस दिन माता सरस्वती, भगवान कृष्ण और कामदेव व रति की पूजा की परंपरा है। बसंत को ऋतुओं का राजा अर्थात सर्वश्रेष्ठ ऋतु माना गया है। इस समय पंच-तत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रुप में प्रकट होते हैं। पंच-तत्व- जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि सभी अपना मोहक रूप दिखाते हैं। आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल! पीयूष के समान सुखदाता! और धरती! उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है! ठंड से ठिठुरे विहंग अब उडऩे का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता! धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो निर्धन शिशिर की प्रताडऩा से मुक्त होने के सुख की अनुभूति करने लगते हैं। बसंत ऋतु का आगमन बसंत पंचमी पर्व से होता है। शांत, ठंडी, मंद वायु, कटु शीत का स्थान ले लेती है तथा सब को नवप्राण व उत्साह से स्पर्श करती है। पत्रपटल तथा पुष्प खिल उठते हैं। स्त्रियाँ पीले- वस्त्र पहन, बसंत पंचमी के इस दिन के सौन्दर्य को और भी अधिक बढ़ा देती हैं। लोकप्रिय खेल पतंगबाजी, बसंत पंचमी से ही जुड़ा है। यह विद्यार्थियों का भी दिन है, इस दिन विद्या की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती की पूजा आराधना भी की जाती है।
बसंत पंचमी के पर्व को मनाने का एक कारण बसंत पंचमी के दिन सरस्वती जयंती का होना भी बताया जाता है। कहते हैं कि देवी सरस्वती बसंत पंचमी के दिन ब्रह्मा के मानस से अवतीर्ण हुई थीं। बसंत के फूल, चंद्रमा व हिम तुषार जैसा उनका रंग था।
बसंत पंचमी के दिन जगह-जगह माँ शारदा की पूजा-अर्चना की जाती है। माँ सरस्वती की कृपा से प्राप्त ज्ञान व कला के समावेश से मनुष्य जीवन में सुख व सौभाग्य प्राप्त होता है। माघ शुक्ल पंचमी को सबसे पहले श्रीकृष्ण ने देवी सरस्वती का पूजन किया था, तब से सरस्वती पूजन का प्रचलन बसंत पंचमी के दिन से मनाने की परंपरा चली आ रही है।
सरस्वती ने अपने चातुर्य से देवों को राक्षसराज कुंभकर्ण से कैसे बचाया, इसकी एक मनोरम कथा वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड में आती है। कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने कहा कि यह राक्षस पहले से ही है, वर पाने के बाद तो और भी उन्मत्त हो जाएगा तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया।
सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- 'स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।Ó यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूँ, यही मेरी इच्छा है। इस तरह देवों को बचाने के लिए सरस्वती और भी पूज्य हो गईं। मध्यप्रदेश के मैहर में आल्हा का बनवाया हुआ सरस्वती का प्राचीन मंदिर है। वहाँ के लोगों का विश्वास है कि आल्हा आज भी बसंत पंचमी के दिन यहाँ माँ की पूजा-अर्चना के लिए आते हैं।

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