Thursday, 14 August 2014

स्वतंत्रता का अर्थ


स्वतंत्रता का अर्थ है स्व का तंत्र यानी कि मेरी अपनी प्रणाली, मेरा अपना तरीका। इसी को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस रूप में कहा है कि ‘‘दूसरे के धर्म का पालन करने से बेहतर है स्वधर्म का पालन करते हुए नष्ट हो जाना।’’ यह स्वधर्म ही तो स्व का तंत्र है। गीता में कृष्ण का धर्म हिन्दू, मुसलमान, ईसाई का धर्म नहीं है, बल्कि यह प्रकृति का धर्म है। यह वह धर्म है, जो प्रकृति ने अपनी हर एक रचना को दिया हुआ है और प्रकृति की जितनी भी रचनाएं हैं, सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। यहाँ तक कि यदि आप एक ही पेड़ के दो आम एक ही समय में तोड़कर बारी-बारी से खायें, तो उनके भी स्वाद में आपको फर्क महसूस हो जाएगा, क्योंकि इन दोनों ही आमों का तंत्र अलग-अलग है, भले ही उनको रस पहुँचाने वाली जड़ें एक ही हैं और भले ही उन जड़ों को रस देने वाली ज़मीन भी एक ही है।
तुम स्वयं स्वतंत्र हो, ताकि दूसरा कोई तुम्हें गुलाम न बना सके। इस ‘स्वतंत्र होवो’ का सम्बन्ध मानसिक स्वतंत्रता से है। इसका सम्बन्ध विचारों की स्वतंत्रता से है। इसका सम्बन्ध इस बात से है कि छोटापन छोड़ो। छोटे कमरे में घुटन होती है। छोटे कपड़े पहनने से कसमसाहट बढ़ती है। जहाँ भी छोटापन होगा। वहाँ परेशानी होगी। जहाँ छोटे विचार होंगे, वहाँ घुटन होगी। जहाँ घुटन होगी, वहाँ स्व का तंत्र काम कर ही नहीं सकता। तो ओछापन छोड़ो ताकि विचार स्वतंत्र हो सकें। लगने दो अपने विचारों में बड़ेपन के पंख, ताकि वह हमारे घर, हमारे नगर और यहाँ तक कि हमारे देश और दुनिया को छोड़कर ब्रह्माण्ड की खुलेआम सैर कर सके। छोटे कमरे में घुटन होती है। तोड़ो दिमाग की इस तिहाड़ जेल को, ताकि हमारी चेतना उन्मुक्त होकर ब्रह्माण्ड की चेतना से सम्पर्क करने लायक बन सके।

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