देश के विकास में बाधक एनीमिया
पिछले बीस सालों से देश की औसत आर्थिक विकास दर 6.5 फीसदी रही है। लेकिन यह भी कैसी विडंबना है कि देश के 6 महीने से 5 वर्ष की आयु के 43 फीसदी बच्चे एनीमिक या रक्ताल्पता का शिकार हैं। रक्त में जब एक लेवल के बाद लाल रक्त कोशिकाओं का स्तर गिर जाता है तो शरीर के प्रत्येक हिस्से में संतुलित रूप से ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती है। ऐसी स्थिति में थकावट महसूस होती है। शायद इसी कारण एनीमिया को 'टायर्ड ब्लडÓ भी कहा जाता है।
सवाल उठता है कि भारत में इतनी तादाद में बच्चे रक्ताल्पता का शिकार क्यों हैं। इसकी मुख्य वजह है कि 15 से 49 आयु वर्ग की 56 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं जबकि स्वस्थ मां से ही स्वस्थ बच्चे का जन्म होगा। हर मामले की तरह रक्ताल्पता के मामले में भी राज्यों के बीच भारी असमानता है। इस मामले में हिंदी भाषी राज्यों की स्थिति कुछ ज्यादा ही चिंताजनक है। मौटे तौर पर सभी हिन्दी भाषी राज्यों में राष्ट्रीय औसत से अधिक बच्चे रक्त की कमी का शिकार हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे ऊपर है।
उत्तर प्रदेश के 49 फीसदी और बिहार के 48 फीसदी बच्चे इसकी गिरफ्त में हैं। इसी क्रम में छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा के 47 फीसदी बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। इनके बाद पंजाब और गुजरात ही दो ऐसे राज्य हैं जहां राष्ट्रीय औसत से अधिक बच्चे एनीमिक हैं। इन दोनों राज्यों में 45 फीसदी बच्चे एनीमिक हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 43 है। इन राज्यों में हरियाणा, पंजाब और गुजरात आर्थिक रूप से विकसित राज्य है। इसके वाबजूद बच्चों की स्थिति बेहतर नहीं है। कर्नाटक में 42 फीसदी तथा महाराष्ट्र, झारखंड और आसाम के 41 फीसदी बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। पश्चिम बंगाल और दिल्ली के 31 फीसदी बच्चे एनीमिक है। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के 30, हिमाचल प्रदेश के 29, केरल के 21 मिजोरम के 21, गोआ के 19 और मणीपुर के 16 फीसदी बच्चे एनीमिक है। देखा जाए तो रक्ताल्पता की समस्या से ग्रस्त यह हिस्सा देश के विकास में बड़ा बाधक भी है।
इंडियन मेडिकल एसोसिऐशन के मुताबिक स्कूल ड्रॉपआउट की एक बड़ी वजह एनीमिया है। इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे बच्चों का वयस्क होने के बाद भी यथोचित मानसिक विकास नहीं हो पाता है। वह अपने को थका हुआ महसूस करते हैं जिसका कार्यक्षमता पर विपरीत असर पड़ता है। स्वाभाविक है कि इससे देश को आर्थिक नुकसान भुगतना पड़ता है। 'द माइक्रोन्युट्राइन्ट इनेशेटिवÓ के मुताबिक एनीमिया के कारण भारत को सालाना जीडीपी का 1.27 फीसदी का घाटा होता है। आईएमए के मुताबिक तो एनीमिया के कारण बच्चों के सीखने की जो क्षमता प्रभावित होती है उससे देश की जीडीपी को चार फीसदी का घाटा होता है।
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर देश के विकास में बाधक बन रही रक्ताल्पता की समस्या से निजात पाने के लिए सरकारी स्तर पर भी कार्यक्रम चलाऐ जा रहे हैं। लेकिन नतीजा संतोषजनक क्यों नहीं निकल पा रहा है यह एक अहम सवाल है। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर एक ही कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन हर राज्यों के नतीजे अलग-अलग क्यों है। इससे एक बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि जनकल्याण को लेकर सभी राज्यों में प्रशासन की प्रतिबद्धता एक जैसी नहीं है। इसलिए राज्यों के शीर्ष नेतृत्व को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
पिछले बीस सालों से देश की औसत आर्थिक विकास दर 6.5 फीसदी रही है। लेकिन यह भी कैसी विडंबना है कि देश के 6 महीने से 5 वर्ष की आयु के 43 फीसदी बच्चे एनीमिक या रक्ताल्पता का शिकार हैं। रक्त में जब एक लेवल के बाद लाल रक्त कोशिकाओं का स्तर गिर जाता है तो शरीर के प्रत्येक हिस्से में संतुलित रूप से ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती है। ऐसी स्थिति में थकावट महसूस होती है। शायद इसी कारण एनीमिया को 'टायर्ड ब्लडÓ भी कहा जाता है।
सवाल उठता है कि भारत में इतनी तादाद में बच्चे रक्ताल्पता का शिकार क्यों हैं। इसकी मुख्य वजह है कि 15 से 49 आयु वर्ग की 56 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं जबकि स्वस्थ मां से ही स्वस्थ बच्चे का जन्म होगा। हर मामले की तरह रक्ताल्पता के मामले में भी राज्यों के बीच भारी असमानता है। इस मामले में हिंदी भाषी राज्यों की स्थिति कुछ ज्यादा ही चिंताजनक है। मौटे तौर पर सभी हिन्दी भाषी राज्यों में राष्ट्रीय औसत से अधिक बच्चे रक्त की कमी का शिकार हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे ऊपर है।
उत्तर प्रदेश के 49 फीसदी और बिहार के 48 फीसदी बच्चे इसकी गिरफ्त में हैं। इसी क्रम में छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा के 47 फीसदी बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। इनके बाद पंजाब और गुजरात ही दो ऐसे राज्य हैं जहां राष्ट्रीय औसत से अधिक बच्चे एनीमिक हैं। इन दोनों राज्यों में 45 फीसदी बच्चे एनीमिक हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 43 है। इन राज्यों में हरियाणा, पंजाब और गुजरात आर्थिक रूप से विकसित राज्य है। इसके वाबजूद बच्चों की स्थिति बेहतर नहीं है। कर्नाटक में 42 फीसदी तथा महाराष्ट्र, झारखंड और आसाम के 41 फीसदी बच्चे खून की कमी का शिकार हैं। पश्चिम बंगाल और दिल्ली के 31 फीसदी बच्चे एनीमिक है। सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के 30, हिमाचल प्रदेश के 29, केरल के 21 मिजोरम के 21, गोआ के 19 और मणीपुर के 16 फीसदी बच्चे एनीमिक है। देखा जाए तो रक्ताल्पता की समस्या से ग्रस्त यह हिस्सा देश के विकास में बड़ा बाधक भी है।
इंडियन मेडिकल एसोसिऐशन के मुताबिक स्कूल ड्रॉपआउट की एक बड़ी वजह एनीमिया है। इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे बच्चों का वयस्क होने के बाद भी यथोचित मानसिक विकास नहीं हो पाता है। वह अपने को थका हुआ महसूस करते हैं जिसका कार्यक्षमता पर विपरीत असर पड़ता है। स्वाभाविक है कि इससे देश को आर्थिक नुकसान भुगतना पड़ता है। 'द माइक्रोन्युट्राइन्ट इनेशेटिवÓ के मुताबिक एनीमिया के कारण भारत को सालाना जीडीपी का 1.27 फीसदी का घाटा होता है। आईएमए के मुताबिक तो एनीमिया के कारण बच्चों के सीखने की जो क्षमता प्रभावित होती है उससे देश की जीडीपी को चार फीसदी का घाटा होता है।
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर देश के विकास में बाधक बन रही रक्ताल्पता की समस्या से निजात पाने के लिए सरकारी स्तर पर भी कार्यक्रम चलाऐ जा रहे हैं। लेकिन नतीजा संतोषजनक क्यों नहीं निकल पा रहा है यह एक अहम सवाल है। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर एक ही कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन हर राज्यों के नतीजे अलग-अलग क्यों है। इससे एक बात साफ तौर पर जाहिर होती है कि जनकल्याण को लेकर सभी राज्यों में प्रशासन की प्रतिबद्धता एक जैसी नहीं है। इसलिए राज्यों के शीर्ष नेतृत्व को इस ओर ध्यान देना चाहिए।
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