Sunday, 29 March 2015

कैल्शियम की अधिक मात्रा भी स्वास्थ्य को नहीं सुहाती



कैल्शियम को हड्डियों के लिए बहुत ही उपयोगी माना जाता है, लेकिन शोधकर्ताओं ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि कैल्शियम की अत्यधिक मात्रा का स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है । कैल्शियम के सप्लिमेंट्स का अधिक मात्रा में सेवन करने के कारण कैल्शियम अल्कली या मिल्क अल्कली नामक समस्या हो सकती है।
इन दिनों लोग छरहरा दिखने के लिए खाना छोड़ कर गोलियों का सहारा ले रहे हैं, जो खतरनाक है। ऐसा करके हम प्राकृतिक टाइम टेबल के विपरीत काम कर रहे हैं। आहार की पूर्ति गोलियों से कर लेना बहुत ही आसान है, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भी कुछ कम नहीं हैं । फल, सब्जी या भोजन के जरिये शरीर में विटामिन की क्षतिपूर्ति करना तो अच्छी बात है, लेकिन इसके लिए गोली का सहारा लेना आपको रोगी बना सकता है। हालिया अध्ययन से पता चला है कि शरीर में विटामिन का स्तर पर्याप्त बनाए रखने के लिए ज्यादा गोलियां खाना प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ा देता है।

कैल्शियम की गोलियों के कुछ दुष्प्रभाव

  • कैल्शियम की गोलियों के अतिरिक्त सेवन से रक्त में कैल्शियम की मात्रा बढ़ सकती है और यहां तक कि किडनी भी खराब हो सकती है ।
  • जिनके परिवार में प्रोस्टेट कैंसर से ग्रस्त रोगी होने का पुराना इतिहास रहा है, उन्हें मल्टीविटामिन का सेवन करने से कैंसर के होने का खतरा रहता है ।
  • मिल्क एल्कली सिन्ड्रोम के कारण हाइपरग्लाइसीमिया हो सकता है और अगर समय रहते इसकी चिकित्सा नहीं की गयी तो रीनल फेल्योर भी हो सकता है।

स्वास्थ्य के लिए कुछ सावधानियां

  • अगर आप कैल्शियम की गोलियां ले रहे हैं, तो रक्त में कैल्शियम की मात्रा की जांच करा लें ।
  • आस्टीयोपोरोसिस के मरीज़ों के लिए कैल्शियम की गोलियों लेना आवश्यक होता है, लेकिन उन्हें भी कैल्शियम की मात्रा ध्यान में रखनी चाहिए ।
  • चिकित्सक के परामर्श के अनुसार ही विटामिन की गोलियां लें।

कैल्शियम से संबंधित भ्रम और तथ्य

कैल्शियम से सम्बन्धी चुनौती सदियों से चली आ रही है और यह स्थिति आज भी वैसी ही है। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि कैल्शियम के पूरक लेने से हड्डियां  मजबूत और स्वस्थ होती हैं और आस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारी के दूर रहने के साथ साथ हड्डियों के टूटने का भी खतरा कम होता है, लेकिन कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि कैल्शियम के रूपक लेने से इनके अतिरिक्त प्रभाव होते हैं। इसलिए कैल्शियम से सम्बन्धी भ्रम का समाधान निकालने के लिए यहां कई प्रकार के भ्रम का समाधान निकाला जा रहा है।
प्रतिदिन मुझे किस मात्रा में कैल्शियम लेना चाहिए?
विशेषज्ञों के अनुसार एक वयस्क व्यक्ति (जिसकी उम्र 19 से 50 वर्ष हो) उसे दिनभर में लगभग 1,000 मिलीग्राम कैल्शियम लेना चाहिए और 50 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति को 1,200 मिलीग्राम कैल्शियम की मात्रा लेनी चाहिए।
यह मात्रा किसी भी प्रकार के कैल्शियम सा्रेत की हो सकती है जैसे डेयरी उत्पाद ,खाद्य पेय आदि  लेकिन कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि दिन में लगभग 600 मीलिग्राम से 1000 मिली ग्राम ही बहुत है।
अगर मैं कैल्शियम के पूरक पर नहीं निर्भर होना चाहता तो मुझे किस मात्रा में कैल्शियम लेना चाहिए?
एक स्वस्थ आहार का अर्थ है दिन में 200 से 300 मिलीग्राम कैल्शियम लेना। इसमें फल और सब्जिय़ां होनी चाहिए जैसे बीज ,अनाज और हरी पत्तेदार सब्जिय़ां, लेकिन 1 कप दूध से शरीर में 300 मिलीग्राम कैल्शियम की मात्रा जुड़ जाती है और दही से 150 से 200 मिलाग्राम कैल्शियम।
सभी दूध के उत्पादों को अपने आहार में शामिल कर और कुछ मात्रा में फल और सब्जिय़ां लेने से शरीर में 600 से 800 मिलीग्राम कैल्शियम की आपूर्ति होती है।
अगर मैं कैल्शियम के पूरक लेना चाहूं तो इन्हें किस तरह से लेना चाहिए।
स्वास्थ्य चिकित्सकों का ऐसा मानना है कि कैल्शियम के पूरक कैल्शियम साइट्रेट या कैल्शियम कार्बोनेट से बने होते हैं।
कैल्शियम के पूरक जिनमें पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम कार्बोनेट होती है उन्हें खाने के बाद लेना चाहिए क्योंकि उन्हें पेट में मौजूद एसिड को अवशोषित करने की ज़रूरत होती है ा कैल्शियम साइट्रेट पेट में मौजूद एसिड पर निर्भर नहीं होता और इसलिए इसे दिन में किसी भी समय लिया जा सकता है ा
क्या कैल्शियम लेकर फ्रैक्चर से बचा जा सकता है ?
विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि बहुत अधिक मात्रा में कैल्शियम लेने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे रक्त में अधिक मात्रा में कैल्शियम होगा ा अगर रक्त में कैल्शियम अधिक मात्रा में नहीं है हड्डियों के रिज़र्पशन से वो सामान्य स्थिति में आ जाती है और ऐसे में हड्डियां और कमज़ोर हो जाती हैं जिससे कि फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है

Thursday, 26 March 2015

विटामिन डी से भरपूर दस आहार


विटामिन डी वसा में घुलनशील विटामिन है। यह कैल्शियम के अवशोषण, न्यूरोमस्कुलर फंक्शनिंग, प्रतिरक्षा प्रणाली के सही तरीके से काम करने, हड्डियों और कोशिकाओं के विकास और नियंत्रण तथा शरीर के अंगों से सूजन को हटाने संबंधी कई कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विटामिन डी की कमी कई प्रकार की गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकती है। ऐसे कई खाद्य पदार्थ हैं जिनमें भरपूर मात्रा में विटामिन डी होता है।

मछली

विभिन्न प्रकार की मछली जैसे सालमोन और ट्यूना 'विटामिन डीÓ की उच्च स्रोत होती हैं। सालमोन विटामिन डी की हमारी रोजाना जरूरत का एक तिहाई हिस्सा पूरा करने के लिए काफी होती है।

दूध

दूध विटामिन डी का एक और महान स्रोत है। हमें दिन भर में जितना विटामिन डी चाहिए होता है, उसका 20 फीसदी हिस्सा दूध पूरा कर देता है। जबकि डेयरी उत्पादों में आमतौर पर विटामिन डी कम मात्रा में पाया जाता है।

अंडे

अंडों को स्वस्थ भोजन माना जाता है, जो विटामिन डी से भरपूर होते हैं। हालांकि विटामिन डी ज्यादा अंडे की जर्दी में पाया जाता है। लेकिन फिर भी हमें इसको पूरा खाना चाहिए। अंडे का सफेद हिस्सा खाने से विटामिन डी की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होती।

संतरे का रस

दूध की तरह ही संतरे का रस भी विटामिन डी से भरपूर होता है। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि विटामिन डी से स्वास्थ्य में जल्दी सुधार कर सकते हैं। इसके लिए आपको संतरे के जूस को अपने आहार का हिस्सा बनाना चाहिए।

अनाज

अनाज विटामिन डी का समृद्ध स्रोत है। विटामिन डी की पूर्ति के लिए नाश्ते से दृढ़ अनाज शामिल कर आप अपने दिन की शुरुआत अच्छे से कर सकते है।

मशरूम

मशरूम में भी विटामिन डी प्रचुर मात्रा में होता है, लेकिन यह मशरूम के प्रकार पर भी निर्भर करता है। शीटेक मशरूम में सफेद मशरूम के तुलना में अधिक विटामिन डी होता है। अगर आप अपने आहार में विटामिन डी को जोडऩा चाहते है तो उसमें शीटेक मशरूम को शामिल करें।

ऑइस्टर (कस्तूरी)

ऑइस्टर विटामिन डी का एक और महान स्रोत है। ऑइस्टर एक स्वस्थ भोजन है इसलिए नहीं कि इसमें विटामिन डी भरपूर मात्रा में होता है बल्कि इसमें विटामिन बी 12, आयरन, जिंक, कॉपर और सेलेनियम भी प्रचुर मात्रा में होता है। लेकिन ऑइस्टर में कोलेस्ट्रॉल ज्यादा होने के कारण इसे सही मात्रा में खाया जाना चाहिए।

पनीर

वैसे तो पनीर के सभी प्रकार में विटामिन डी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है लेकिन अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में  विटामिन डी जरा कम होता है।  चीज में अन्य पनीर की तुलना में पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी होता है।  इसलिए इसे अपने आहार में शामिल करें।

कॉड लिवर ऑयल

कॉड लिवर ऑयल विटामिन डी से समृद्ध एक और अद्भुत भोजन है। इसमें मौजूद विटामिन ए और डी के उच्च स्तर के कारण इसे सबसे अच्छा प्राकृतिक पूरक माना जाता है। अगर आप विटामिन डी में वृद्धि करना चाहते हैं तो आप अपने आहार योजना के लिए कॉड स्तर तेल जोडऩा सुनिश्चित करें।

पोर्क (सूअर का मांस)

अच्छी तरह से कटा और तैयार पोर्क विशेष रूप से पसलियों से, विटामिन डी का एक और समृद्ध स्रोत है। लेकिन इसे सीमित मात्रा में ही लेना चाहिए क्योंकि इसमें कोलेस्ट्रॉल उच्च मात्रा में होता है।

Tuesday, 24 March 2015

व्रत के लिये फ्राई आलू


किसी भी फलाहारी व्रत के लिये आलू फ्राई कर के खाइये अच्छे लगते हैं। छोटे आलू हों तो आलू साबुत ही फ्राई किये जा सकते हैं, यदि आलू बड़े बड़े हैं तो उनके 4 या 6 टुकड़े कर के फ्राई किये जा सकते हैं। आइये व्रत के लिये आलू फ्राई करें।
बड़े 6-7 मीडियम आकार के आलू अच्छी तरह धोकर उबाल लीजिये, ठंडा कीजिये, छील लीजिये।
तेल कढ़ाई में डाल कर गरम कीजिये, गरम तेल में आलू डाल कर हल्के  ब्राउन होने तक तल कर प्लेट में निकाल लीजिये।
एक टेबल स्पून तेल बचाकर,अतिरिक्त तेल निकाल दीजिये। गरम तेल में जीरा डालिये, जीरा तड़कने के बाद आलू, नमक और आधा छोटी चम्मच काली मिर्च डाल कर आलू 2-3 मिनिट तक भूनिये, गैस बन्द कर दीजिये, हरा धनियां और एक नीबू का रस डाल कर मिलाइये। लीजिये व्रत के लिये आलू तैयार हैं। स्वादिष्ट आलू परोसिये और खाइये।
यदि आप तेल ज्यादा नहीं खाना पसन्द करते तब आलू को तले बिना ही बनाइये। कढ़ाई में 1 टेबल स्पून तेल डाल कर गरम कीजिये, गरम तेल में जीरा डालिये, जीरा तड़कने के बाद आलू, नमक और काली मिर्च डाल कर आलू 2-3 मिनिट तक भूनिये, गैस बन्द कर दीजिये, हरा धनियां और नीबू का रस डाल कर मिलाइये।  लीजिये व्रत के लिये आलू तैयार हैं। स्वादिष्ट आलू परोसिये और खाइये।

 

कूटू के आटे का चीला

कूटू के आटे से व्रत के लिये तरह तरह के व्यंजन बनाये जाते हैं।  कूटू के आटे के चीले बहुत अच्छे बन जाते हैं। आइये बनायें कूटू के आटे के चीला।
100 ग्राम (आधा कप) कूटू का आटा छान कर किसी बर्तन में निकाल लीजिये, 200 - ग्राम  अरबी धोकर उबाल लीजिये।  अरबी को छील कर, कद्दूकस करके, मेस कर लीजिये। कूटू के आटे में मिलाइये, थोड़ा थोड़ा पानी डाल कर, आटे को घोलते जाइये, गुठलियां नहीं पडऩी चाहिये।
घोल को अधिक गाढ़ा और अधिक पतला मत कीजिये। घोल को 15  मिनिट के लिये ढककर रख दीजिये।
घोल में 1 छोटी चम्मच नमक, आधा छोटी चम्मच काली मिर्च और एक टेबल स्पून कतरा हुआ हरा धनियां मिला लीजिये।
तवा गैस पर रखिये, गरम कीजिये, एक बड़ा चमचा घोल तवे पर डालिये और चमचे से गोल गोल चलाते हुये पतला चीला फैलाइये। चीले की नीचली सतह ब्राउन होने तक सेक कर पलट दीजिये। दूसरी तरफ भी ब्राउन होने तक सेकिये।  चीला तवे से उतार कर प्लेट में रखी कटोरी के ऊपर रखिये।  सारे चीले इसी तरह बनाकर तैयार कर लीजिये।
कूटू के चीले तैयार हैं इन्हैं आप गरम गरम फ्राई आलू या दही के साथ खाइये।

Thursday, 19 March 2015

मेनोपॉज से जुड़ी परेशानियों को ऐसे करें दूर


मेनोपॉज समस्या नहीं है, बल्कि उम्र का एक पड़ाव है जो हर महिला की जिंदगी में आता है। जिस तरह पहली बार पीरियड्स होना या फिर पहली बार गर्भ धारण करना समस्या नहीं ठीक उसी तरह मेनोपॉज भी कोई बीमारी नहीं है। इस वक्त कुछ समस्यायें हो सकती हैं लेकिन इसे आसानी से दूर किया जा सकता है।
अधिकांश महिलाओं को 45-50 की उम्र में पीरियड्स बंद हो जाता है, इसी अवस्था को मेनोपॉज कहते हैं। जानकारी के अभाव में कई महिलाओं को मेनोपॉज के दौरान कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पीरियड्स बंद होने का कारण अंडाशय में एस्ट्रोजन हार्मोन का खत्म हो जाना है। अंडाशय के अंडों की भी एक आयु होती है जो कि समय के साथ-साथ समाप्त हो जाती है। इसके कारण दिमाग में ठीक से सिग्नल न पहुंचने की वजह से फोलिकल नहीं बनता, जिसकी वजह से महिलाओं को पीरियड्स न होने के साथ-साथ कुछ और परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
मेनोपॉज के वक्त कुछ समस्यायें हो सकती हैं, वजन बढऩा, चिड़चिड़ापन, थकान, लगातार खाते रहने की चाहत आदि मेनोपॉज के प्रमुख लक्षण हैं। हालांकि यह समस्या सभी महिलाओं में एक जैसे नहीं हो सकते। मेनोपॉज से जुड़ी कुछ समस्याओं को योग के जरिये आसानी से दूर किया जा सकता है।

ब्रिज पोज यानी सेतुबंध आसन

इस आसन में महिला के शरीर का आकार पुल की तरह होता है इसलिए इसे ब्रिज पोज भी कहते हैं। इस आसन को करने के लिए पीठ के बल सीधे लेट जाएं, दोनों हाथ शरीर के बगल में सीधा रखें, हथेलियों को जमीन पर सटाकर रखें। अब दोनों घुटनों को मोड़ लीजिये जिससे सिर्फ तलवे ही जमीन से छुएं, सांस लेते हुए कमर को ऊपर उठाने की कोशिश कीजिए। कोशिश करें कि आपका सीना ठुड्डी को छुए, इस दौरान बाजुओं को कोहनी से मोड़ लें और हथेलियों को कमर के नीचे रखकर सपोर्ट दीजिए। कुछ क्षण बाद कमर नीचे लाएं और पीठ के बल सीधे लेट जाइए। इससे कमर दर्द, मांसपेशियों का दर्द दूर होगा और अच्छी नींद आयेगी।

अधोमुखी श्वान आसन

श्वान का अर्थ है कुत्ता और अधोमुखी का अर्थ होता है नीचे की ओर सिर। इस आसन के पोज में कुत्ते के समान सिर को नीचे की तरफ झुकाकर योग का अभ्यास किया जाता है। इस आसन को करने के लिए दोनों पैरों, हाथों पर अपने शरीर का भार लायें। हाथों और पैरों को फैलाकर रखें, फिर अपने कूल्हों को ऊपर उठाकर रखें। फिर आराम से सांसों को अंदर-बाहर करें। इससे पेट का दर्द और सिरदर्द दूर होता है।

लंबी सांसें लेना

सुखासन की मुद्रा में बैठ जाइये, अपने हाथों को अपने पैरों पर रख लीजिए। अब अपने पेट पर दबाव डालते हुए नाक से सांस लीजिए, फिर धीरे-धीरे सांसों को छोड़ें। यह क्रिया 10 मिनट तक दोहरायें। इससे दिमाग शांत होता है और पेट की समस्या दूर होती है।

उर्ध्वमुख श्वान आसन

उर्ध्वमुख श्वान आसन अधोमुख श्वान आसन के विपरीत आसन की क्रिया है। अधोमुख में सिर को नीचे की ओर करके आसन किया जाता है जबकि इसमें सिर को ऊपर की तरफ करके योग किया जाता है। इस आसन का अभ्यास करते समय जब शरीर के ऊपरी भाग को जमीन से ऊपर की ओर उठाते हैं उस समय कमर पर अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए बल्कि रीढ़ की हड्डी को एक साथ ऊपर की तरफ घूमाना चाहिए। कंधों को थोड़ा बाहर की ओर आरामदायक स्थिति में फैलाकर बांहों को धीरे-धीरे सीधा कीजिए, सीने को जमीन से उठाकर एवं फैलाकर रखें।
इन आसनों के अलावा खानपान पर विशेष ध्यान दीजिये, समय पर भोजन करें और संतुलित आहार लें। अपनी डाइट में दूध, दही, फल और हरी सब्जियां शामिल करें। अधिक समस्या होने पर चिकित्सक को संपर्क करें।

Tuesday, 17 March 2015

क्या होता है मेल मेनोपॉज?


उम्र बढऩा मन का मामला है, यदि आप इस पर ध्यान नहीं देते हैं, तो यह महत्वपूर्ण नहीं है। इसके उलट उम्र बढऩा हमेशा से ही चिंता का विषय रहा है। भारत में पौराणिक पात्र ययाति को एक उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। हस्तिनापुर के महाराज ययाति पराक्रम, ऐश्वर्य और भोग-विलास करने के लिए अपने पुत्र पुरू से उसका यौवन लेते हैं और उसे अपनी जरावस्था दे देते हैं।
बाद में क्या होता है, इसका संबंध इस लेख से नहीं है, इसलिए इसे यहीं रहने दें। मूल बात यह है कि अपनी जरावस्था यानी बुढ़ापे को पुरुष आसानी से पचा नहीं पाता है। तभी तो दुनिया भर में एंटी-एजिंग को लेकर रिसर्च किए जा रहे हैं, किसी भी तरह से उम्र बढऩे के प्रभाव को रोकने का कोई फार्मूला मिल जाए...आखिर इसकी जड़ में कौन-सी वजहें हैं?
कुछ तो इसके पीछे के चिकित्सकीय कारण हैं तो कुछ सामाजिक...। मेडिकल साइंस इसे हार्मोनल चेंज का मामला बताता है। हम अपने आसपास देखते हैं कि धार्मिक और आध्यात्मिक आयोजनों में बढ़ती उम्र के लोग ज्यादा सक्रिय होते हैं। युवावस्था में तेज रफ्तार गाडिय़ों, तीखा-सनसनाता संगीत, तेज गति की जीवन-शैली और संघर्ष करने की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है, लेकिन उम्र बढ़ते ही पुरुष इन सबसे दूर होने लगता है। सुनते और महसूस भी करते हैं कि उम्र बढऩे के साथ ही स्वभाव की उग्रता, गुस्सा और तीखापन कम होता जाता है मगर चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती है। खतरों की तुलना में सुरक्षा को ज्यादा तवज्जो दी जाने लगती है। याददाश्त कम होती है और भावुकता बढऩे लगती है।
इस तरह के व्यवहारिक लक्षण पुरुषों में स्पष्ट, मुखर औऱ ज्यादा 'प्रॉमिनेंटÓ होते है, बजाय महिलाओं के... क्योंकि महिलाएं पहले से ही 'टैंडरÓ होती हैं। पुरुष अपनी युवावस्था में कभी भी इतना कोमल, इतना भावुक नहीं रहता है, जितना बढ़ती उम्र में होने लगता है। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों होता है और इस अवस्था को क्या कहा जाता है?
पुरुषों में होने वाले इस तरह के मनोवैज्ञानिक, व्यवाहारिक और शारीरिक परिवर्तन को एंड्रोपॉज कहा जाता है, इस पर मेडिकल साइंस तो चर्चा करता है, लेकिन सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर इस विषय पर चर्चा करने से बचा जाता है। बहुत स्वाभाविक है कि पुरुषों के लिए उसका कथित पौरुष इतना महत्वपूर्ण होता है कि उसमें आने वाले कोमल और भावनात्मक परिवर्तन उसकी कमजोरी का प्रतीक माने जाते है, बजाय उसके ज्यादा मानवीय होने के...।
हमारी व्यवस्था में नर पैदा होता है और फिर समाज उसे पुरुष बनाता है, जैसे सिमोन ने स्त्री के लिए कहा था कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, उसी तरह पुरुष भी...उसे अपने पुरुष होने को सिद्ध करने के लिए हमेशा 'टफÓ होना और दिखाई देते रहना होता है, लेकिन फिलहाल तक तो वक्त बलवान है और जिस तरह महिलाओं में मेनोपॉज होता है, उसी तरह पुरुषों में एंड्रोपॉज होता है।

क्या होता है एंड्रोपॉज?

एंड्रोपॉज पुरुषों में उम्र बढऩे के साथ होने वाले भावनात्मक और शारीरिक परिवर्तन को कहते हैं। यद्यपि ये लक्षण सारे उम्र बढऩे से संबंधित हैं, फिर भी इसका संबंध कुछ विशिष्ट किस्म के हार्मोंनों में बदलाव से है। इसमें उम्र बढऩे के साथ पुरुषों में हार्मोंस के तेजी से प्राकृतिक क्षरण होता है। एंड्रोपॉज को मेल मेनोपॉज, पुरुषों का संकट-काल, हाइपोगोनेडिज्म का हमला, उम्र बढऩे के साथ एंड्रोजन के गिरने से या वीरोपॉज भी कहा जाता है।
न्यूयॉर्क के डॉ. वर्नर कहते हैं कि एंड्रोपॉज हकीकत में पुरुषों का मेनोपॉज है। वे कहते हैं कि दरअसल एंड्रोपॉज सही शब्द नहीं है, क्योंकि यह प्रक्रिया मेनोपॉज की तरह सभी में नहीं देखी जाती। न ही यह प्रजनन क्षमता समाप्त होने पर अचानक आ जाती है। यह उम्र बढऩे के साथ कई पुरुषों में होने वाली सामान्य प्रक्रिया है और यह उम्र बढऩे के साथ-साथ बढ़ती जाती है।

कब से शुरू होती है यह प्रक्रिया?

इसमें 40 से 49 साल की अवस्था के साथ 2 से 5 प्रतिशत की गति से यह प्रक्रिया बढ़ती है, इसी तरह 50 से 59 के बीच की अवस्था के साथ 6 से 40 , 60-69 में 20 से 45 प्रतिशत, 70-79 में 3 ऐ 4 और 70 प्रतिशत के बीच बढ़ती जाती है। इसी तरह 80 साल की उम्र में हाईपोगोनेडिज्म के गिरने की दर 91 प्रतिशत तक होती है। इसमें मध्यवय के पुरुषों में टेस्टोस्टेरॉन और डिहाईड्रोपियनड्रोस्टेरॉन हार्मोन बनने की प्रक्रिया धीमी लेकिन स्थिर गति से कम होती जाती है और इसके परिणामस्वरूप लिडिंग सेल्स बनने में भी कमी हो जाती है।

क्या होता है इसमें?

चूँकि इस दौरान टेस्टोस्टेरॉन बनने की गति धीमी होने लगती है, इसलिए इस तरह के हार्मोंनल बदलाव पुरुषों में शारीरिक और भावनात्मक परिवर्तन भी लाते हैं। इस समय में आमतौर पर पुरुष अपने परिवार का साथ चाहते हैं।
अपनी युवावस्था में करियर, पैसा और शक्ति को केंद्र में रखते हैं तो एंड्रोपॉज के दौरान उनके केंद्र में परिवार, दोस्त और रिश्तेदार आ जाते हैं। वह अपने बच्चों के प्रति 'मातृवत' होने लगता है। घरेलू काम जैसे खाना बनाना, सफाई करना और बच्चों की देखभाल करना उसे अच्छा लगने लगता है। धार्मिक और आध्यात्मिक रुझान बढऩे लगता है। वह व्यर्थ के झंझट मोल लेने से बचने लगता है मगर चुनौतियां लेने से नहीं।
इस वक्त वह अपने अर्जित अनुभव को सान पर चढ़ाना चाहता है, उसे उपयोग करना और परखना चाहता है। ऐसे में उसे शारीरिक बदलाव के चलते चुनौती लेने लायक न समझा जाए तो वह कुंठित होता है। हां, उसे एडवेंचरस खेलों की तुलना में टीवी देखना ज्यादा भाता है। इस तरह के बदलाव से कभी-कभी पुरुष चिड़चिड़ाने भी लगता है।
मनोचिकित्सक बताते हैं कि पुरुषों के लिए चूंकि सामाजिक स्तर पर 'पौरुष' एक मूल्य के तौर पर स्थापित है, इसलिए जब पुरुष इसे कम होता देखता है तो वह थोड़ा निराश और थोड़ा चिड़चिड़ा होने लगता है, वह इसे आसानी से हजम नहीं कर पाता है। दरअसल कमजोरी और हमेशा 'पुरुष' होने और बने रहने की सामाजिक अपेक्षा की वजह से उसका व्यवहार कभी-कभी रूखा और चिड़चिड़ा हो जाता है।

Monday, 16 March 2015

मेनोपॉज की उदासी को करें दूर


हर महिला को उम्र की ढलान पर मेनोपॉज का सामना करना पड़ता है। इस दौरान महिलाओं के शरीर में एस्ट्रोजन व प्रोजेस्ट्रॉन हार्मोन का स्तर कम हो जाता है जिससे कई बार वे तनाव का शिकार हो जाती हैं और उन्हें बात-बात पर गुस्सा आता है। थकान, मोटापा, सिरदर्द, बदनदर्द और बालों का झडऩा जैसी समस्याएं होने लगती हैं। इनसे बचने के लिए जरूरी है कि महिलाएं सही खानपान व व्यायाम अपनाएं।

यह है मेनोपॉज

स्त्री रोग विशेषज्ञ के अनुसार यह महिलाओं के शरीर में होने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो 45-55 साल की उम्र के बीच होती है। इसमें महिलाओं को पीरियड्स होने बंद हो जाते हैं और उनकी प्रजनन क्षमता खत्म हो जाती है।

खानपान में बदलाव

कैल्शियम से भरपूर डाइट लें जैसे दूध, दही, ब्रोकली, सेम, गाजर, शकरकंदी और अंजीर आदि। इनसे हड्डियां मजबूत रहती हैं और आगे चलकर जोड़ों के दर्द की समस्या नहीं होती। मौसमी फल खाएं। फाइबर फूड जैसे पत्तागोभी, ब्रोकली, काबुली चने, राजमा, मसूर व अरहर की दाल अधिक मात्रा में लें। इस दौरान सोया डाइट भी काफी फायदेमंद होती है।

बॉडी में होगा सुधार

मेनोपॉज के दौरान व्यायाम काफी उपयोगी होता है। एक्सरसाइज करने से मोटापे के अलावा ह्वदय रोग और ऑस्टियोपोरोसिस की आशंका कम हो जाती है। एक्सरसाइज से मूड बेहतर होता है और टेंशन कम होती है। इससे एंडोर्फिन एक्टिविटी बढ़ जाती है जिससे रात में सोने के दौरान आने वाला पसीना कम हो जाता है और महिलाएं ठीक से सो पाती हैं।

खुद को व्यस्त रखें

मेनोपॉज के दौरान शारीरिक बदलावों की वजह से महिलाएं अक्सर अपने लुक को लेकर तनाव में आ जाती हैं। इससे बचने के लिए खुद को किसी न किसी एक्टिविटी में व्यस्त रखें। किताबें पढ़ें, बागवानी करें, घूमने जाएंं।

Saturday, 14 March 2015

मेनोपॉज से न घबराएं


जिस तरह पहली बार पीरियड्स होना या फिर पहली बार गर्भ धारण करना कोई बीमारी नहीं है, ठीक उसी तरह मेनोपॉज भी कोई बीमारी नहीं है। क्या है मेनोपॉज और इस दौरान होने वाली समस्याओं से कैसे निबटें। अधिकांश महिलाओं को 45-50 वर्ष की उम्र में पीरियड्स बंद हो जाता है। इस अवस्था को मेनोपॉज कहते हैं। जानकारी के अभाव में कई महिलाओं को मेनोपॉज के दौरान कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पीरियड्स बंद होने का कारण अंडाशय में एस्ट्रोजन हारमोन का खत्म हो जाना है। अंडाशय के अंडों की भी एक आयु होती है जो कि समय के साथ-साथ क्षीण हो जाती है। इसके कारण मस्तिष्क में ठीक से सिग्नल न पहुंचने की वजह से फोलिकल नहीं बनता, जिसकी वजह से महिलाओं को पीरियड्स न होने के साथ-साथ कुछ और परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
कई महिलाओं को पीरियड्स के दौरान कोई भी परेशानी नहीं होती और कुछ को पेट दर्द से लेकर कई अन्य परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ठीक वही स्थिति मेनोपॉज के दौरान भी होती है। पर एक बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि पीरियड्स बंद होने का एकमात्र कारण मेनोपॉज नहीं है। कई अन्य वजहों से भी पीरियड्स बंद हो सकता है, जैसे कि बच्चेदानी में किसी भी तरह की बीमारी की वजह से महिला की बच्चेदानी निकाली जा चुकी हो या महिला को कैंसर हुआ हो और उसके ट्रीटमेंट के दौरान उसे रेडिएशन थेरेपी मिली हो। कई अन्य कारणों की वजह से कई बार समय से पहले भी पीरियड्स बंद हो सकता है जैसे कि शीहैन्स सिन्ड्रोम, वायरल इंफेक्शन और इटिंग डिसऑर्डर। मेनोपॉज तीन स्टेज में होता है। प्रीमेनोपॉज, पीरियड्स बंद होने से पहले के एक से दो वर्ष का समय इस स्टेज का हिस्सा है। मेनोपॉज, एक साल तक अगर पीरियड्स लगातार बंद रहे तो इस स्थिति को मेनोपॉज कहा जाता है और मेनोपॉज के बाद के दौर को पोस्ट मेनोपॉज कहा जाता है। मेनोपॉज के वक्त किसी भी महिला को सबसे ज्यादा तीन चीजों की जरूरत पड़ती है, सपोर्टिव जीवनसाथी, अच्छे दोस्त, मां और सास और सही डॉक्टरी परामर्श।

इस दौरान कौन-सी परेशानियां हैं आम

पूरे शरीर में जलन का महसूस होना, नींद न आना, दिल का तेजी से धड़कना, कभी बहुत खुश तो कभी अचानक से गुस्सा हो जाना, जरा-सी बात पर घबरा जाना, हर समय परेशान रहना तथा छोटी- छोटी बातों पर झुंझलाहट होना, स्मरण शक्ति कमजोर होना आदि मेनोपॉज के दौरान होने वाली आप परेशानियां हैं। इनके अलावा मेनोपॉज के दौरान कई शारीरिक समस्या भी घेर लेती हैं। इन समस्याओं में चेहरे पर झुर्रियों का आना, बालों का रंग सफेद होना और झडऩा, वजन बढऩा और थकान होना आदि प्रमुख हैं। मेनोपॉज का सबसे ज्यादा असर हड्डियों पर पड़ता है। एस्ट्रोजन हारमोन के कम होने के कारण बोन मास कम हो जाता है, जिसकी वजह से घुटने में दर्द व जोड़ों की बीमारी होना आम बात है। कैल्शियम की ज्यादा कमी की वजह से रीढ़ की हड्डी कमजोर होने लगती है और मरीज आगे की तरफ झुकना शुरू कर देते हैं। मेनोपॉज के कारण नर्वस सिस्टम और दिल पर भी असर पड़ता है।

ऐसे करें मेनोपॉज का सामना

  • सुबह-शाम सैर पर जाएं।
  • समय पर भोजन करें और संतुलित आहार लें। अपनी डाइट में दूध, दही, फल और हरी सब्जियां शामिल करें।
  • मेनोपॉज के दौरान सोया प्रोडक्ट्स भी काफी फायदा पहुंचाते हैं, उनका भी सेवन करें।
  • आजकल योग ने हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान ले लिया है, जो फायदेमंद भी साबित हुआ है। नियमित रूप से योग भी करें।

Friday, 13 March 2015

भारत और अन्य विकासशील देशों में रजोनिवृत्ति का संस्कृतिक आर्थिक संदर्भ


रजोनिवृत्ति की अवस्था का मतलब एक समाज में कुछ हो सकता है और दुसरे में कुछ और। यह समाज की राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना पर और साथ ही इस बात पर निर्भर करता है कि वह सभी आयु-वर्ग की महिलाओं को अपनी स्वास्थ्य देख-रेख की सुविधा सुलभ कराने के साथ साथ क्या जीवन स्थितियां उपलब्ध कराता है।
परिवेश या वातावरण सभी महिलाओं के स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विकासशील देशों में जब महिलाएँ रजोनिवृत्ति की अवस्था में पहूँचती हैं तो उनका स्वास्थ्य अपनी परिवेशगत स्थितियों के कारण पहले ही गिर चुका होता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य की निम्न स्थिति की वजह से संक्रामक रोगों का होना सामान्य है। भारत और अन्य विकासशील देशों में, औद्योगिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के स्वास्थ्य प्रदूषण, रासायनिक विषाणुयुक्त पदार्थों और जोखिम भरी कार्यस्थितियों के कारण प्रभावित होता है।
भारत में बहुत महिलाएं अपर्याप्त भोजन के कारण पोषण संबंधी रक्ताल्पता यानी खून की कमी (एनीमिया) की शिकार हो जाती है और उनका स्वास्थ्य लगातार कुपोषण की वजह से बिगड़ जाता है।
जीवन के मध्यकाल में महिला का स्वास्थ्य केवल इसी बात से प्रभावित नहीं होता हैं कि उसने कितने बच्चे पैदा किए हैं, बल्कि इस बात से भी निर्धारित होता है कि उसने कितने गर्भधारण किए, अंतिम गर्भधारण के समय उसकी उम्र क्या थी, उसके कितने असुरक्षित गर्भपात हुए और उसे गर्भनिरोध की सुविधा कहाँ तक सुलभ हो पाई। अगर असरकारक ढंग से गर्भ- निरोधन किया जाए तो प्रजनन संबंधी कठिनाइयों को दूर किया जा सकता है।
भारत में महिलाओं और पुरूषों, दोनों को स्वास्थ्य सेवा सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हो पाती है। रजोनिवृत्ति जैसी कम ज्ञात स्थितियों से निबटने के लिए जो थोड़े से साधन उपलब्ध भी हैं तो उनका उपयोग कम ही हो पाता है।
हमारे देश में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर महिलाएं चुपचाप कष्ट झेलती रहती हैं और अपनी समस्याओं को लेकर खुल कर सामने आने में झिझकते हैं।
जीवन के मध्यकाल में रजोनिवृत्ति महिलाओं को अनेक सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे कि बड़े बच्चों की लिए समय निकलना; घर में बुजुर्गों की देखभाल; सेवानिवृत्त पति की देखरेख (उनमें से कुछ तो घर के दैनिक कार्यों में मदद करते हैं, पर कुछ सचमुच बहुत अपेक्षा करते हैं) या स्वयं कामकाजी महिला की सेवानिवृत्ति। जीवन के इस परिवर्तनकारी दौर में संयुक्त परिवार में रहना कभी-कभी बहुत तनावपूर्ण हो सकता है क्योंकी आस-पास के लोग महिला की समस्या को नहीं समझ पाते ।

Thursday, 12 March 2015

मेनोपॉज : सकारात्मक सोच


बीसवीं सदी के अंत में महिलाओं की औसत जीवन क्षमता 55 वर्ष थी। इस तरह तब महिला की रजोनिवृत्ति जीवन के अंतिम वर्षों में होती थी। पर आज महिलाओं की जीवन क्षमता 80 वर्ष है। महिलाओं के लिए यह सचमुच खुश होने की बात है। रजोनिवृत्ति प्रजनन शक्ति का अंत मात्र है, जीवन या सक्रियता का अंत नहीं। आप रजोनिवृत्ति पर नए जीवन की शूरूआत कर सकती हैं और अपनी नई मिली आजादी के साथ (यानी आपका परिवार बस चुका होता है, और माहवारी, गर्भधारण आदि का कोई झंझट नहीं रहता) आप बाद के तीस वर्ष आराम से बिता सकती हैं। इस स्वभाविक घटना कों सकारात्मक रूप में लेना और जीवन के प्रजननहीन वर्षों को जीवन के सबसे सशक्त और रचनात्मक वर्ष बनाना आप पर निर्भर करता है। रजोनिवृत्ति के बाद किस तरह आप एक स्वस्थ्य और रोग-मुक्त जीवन बिता सकती हैं?

जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया

जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाने का मतलब है कि आप रजोनिवृत्ति को अपने जीवन के मध्य काल की एक स्वाभाविक घटना के रूप में स्वीकार करें। जहाँ तक संभव हो स्वाभविक रूप में, या अपने डॉक्टर की मदद से रजोनिवृत्ति के लक्षणों से दृढ निश्चय के साथ निबटें। रजोनिवृत्ति के समय तक आपका परिवार बस चुका होता है, आपको हर महीने अपनी माहवारी की तारीख याद रखने की जरूरत नहीं होती, यानी माहवारी का कोई झंझट नहीं होता तो इस तरह से आपको बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने और अपनी इच्छा से कार्य करने के लिए एक नई आजादी मिलती है।

अपनी जीवन शैली पर नियंत्रण

अपनी जीवन शैली अपनाएं। स्वस्थ जीवन शैली का स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। वजन को नियंत्रण में रखना और तनावों को वश में करना ये जीवन शैली के दो अतिरिक्त पहलू हैं जो अच्छे स्वास्थ्य में योगदान करते हैं।

स्वास्थयवद्र्धक भोजन

कोई भी एक भोजन ऐसा नहीं है जिसमें सभी स्वास्थयवर्द्धक गुण मौजूद हों। सन्तुलित आहार ही सही रूप से संयोजित भोजन होता है जो आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है। एक सेब रोज खा कर आप डॉक्टर के पास जाने से बच नहीं सकते है, या ही सुबह 10 आंवले खा कर आप अपने याददाश्त नहीं बढ़ा सकते।
अविकसित देशों में जहाँ भोजन की कमी और जनसंख्या विस्फोट सामान्यत: देखने को मिलता है, प्रमुख स्वास्थ्य संबंधी खतरा भोजन में मिलावट का होता है। इससे बचें।
सन्तुलित आहार में भी आवश्यक पोषक तत्व मौजूद रहते हैं, जैसे कि प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन, मिनरल और पानी। रजोनिवृत्ति के तत्काल पूर्व और बाद की अवस्था में महिलाओं को अन्य पोषक तत्वों के साथ- साथ अनेक प्रकार के निम्न वसायुक्त, दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थ लेने चाहिए ताकि उनकी दैनिक कैल्शियम संबंधी जरूरतें पूरी हो सकें।

उत्तम भोजन के सिद्धांत

1. भोजन करते समय प्रसन्न और तनावमुक्त रहें। इससे आपके पाचन में सुधार होगा। अच्छे स्वास्थ्य के लिए भोजन के समय हमारी मानसिक स्थिति उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि हमारा भोजन।
2. प्रतिदिन सभी खाद्य समूहों में से एक चीज को शामिल करके सन्तुलित आहार खाएँ।
3. नियमित अन्तराल के बाद भोजन करें। एक बार में भारी भोजन करके पेट पर अतिरिक्त भर डालना और फिर अगली बार भोजन न करना गलत है।
4. भोजन को स्वच्छतापूर्ण ढंग से पकाएं और आकर्षक ढंग से परोसें।

धूम्रपान और शराब

धूम्रपान बीमारी और अकाल मृत्यु का अकेला सबसे बड़ा कारण है जिसे रोका जा सकता है। धूम्रपान अस्थि - भंग को खतरे को दोगुना कर देता है। अध्ययनों से पता चला है कि जो महिलाएं धूम्रपान करती हैं उनकी अस्थि सघनता एस्ट्रोजन बनने में कमी आने के कारण अधिक निम्न हो जाती है। लम्बे समय तक शराब का सेवन अस्थि द्रव्यमान को घटा देता है और अस्थि भंग के खतरे को बढ़ाता है। किन्तु अल्प मात्रा में मदिरा का सेवन करना यानी एक या दो ड्रिंक्स प्रति दिन लेना हानिकर प्रतीत नहीं होता।
प्रोटीन- हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका को ऊतकों की मरम्मत करने और नए ऊतक बनाने के लिए प्रोटीन की जरूरत होती है।
कार्बोहाइड्रेट- कार्बोहाइड्रेट हमारे शारीर के लिए सबसे सस्ता और बना- बनाया ईंधन होते हैं जो हमें कार्य करने के लिए ऊर्जा व शक्ति प्रदान करते हैं। हमारे शरीर के मस्तिष्क, हृदय और लीवर जैसे महत्वपूर्ण अंगों को उचित प्रकार से कम करने के लिए ग्लूकोज की जरूरत होती है।
वसा (फैट)- वसाएं शरीर का आरक्षित ईंधन होती हैं। वे बचत बैंक खाते की तरह होती हैं। वसाएं सबसे खर्चीला और ठोस आहार हैं जिनसे प्रोटीन या कार्बोहाइड्रेट की तुलना में 2 (गुना अधिक कैलोरियाँ प्राप्त होती हैं। मक्खन और घी जैसी पशु वसाओं में विटामिन ए,डी,ई, और के होता है, जबकि वेजिटेबल तेलों में विटामिन ए और डी. नहीं होते। वसाओं में आवश्यक चर्बीयुक्त एसिड भी होते हैं जो शरीरिक विकास और पोषण के लिए जरूरी हैं। वेजिटेबल तेलों में आवश्यक वसायुक्त एसिड प्रचुर मात्रा में मिलते हैं,जबकि घी, मक्खन और पशु वसाओं में आवश्यक वसायुक्त एसिड कम होते हैं। इसलिए सन्तुलित पोषण के लिए यह जरूरी है कि हम कुछ कैलोरियाँ वेजिटेबल तेलों से भी प्राप्त करें।
विटामिन - विटामिन जीवन के लिए आवश्यक तत्व है। प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट के विपरीत विटामिन न तो ऊर्जा प्रदान करते हैं और न ही वे ऊतकों का निर्माण करने में सहायक होते हैं। वे शरीर के विभिन्न कार्यों के नियमनकर्त्ता हैं और पोषक तत्वों का उपयोग करने में शरीर की सहायता करते हैं। सन्तुलित खुराक में विटामिन बी- कॉमप्लेक्स ( यानी बी समूह के विभिन्न विटामिन), विटामिन सी, ए, डी, ई, और के मिलते हैं। यदि आप प्रतिदिन सन्तुलित आहार नहीं लेती तो आप विटामिन पूरक (सप्लीमेंट) ले सकती हैं। रजोनिवृत्ति के बाद कुछ महिलाओं में विटामिन ई लेने से उत्तापन (हाट फ्लश) और पांव की मरोड़ आदि में कमी आती है।
मिनरल- विटामिन की तरह मिनरल्स भी कोई कैलोरी प्रदान नहीं करते। पर वे (क) शरीर के ऊतकों के विकास और मरम्मत के लिए और (ख) शरीर के विभिन्न कार्यों के नियमन के लिए आवश्यक होते हैं। मिनरल्स में आयरन कैलशियम, फास्फोरस, आयोडीन, सोडियम और पोटाशियमशामिल हैं।
आयरन- आयरन हीमोग्लोबिन और लाल रक्त कोशिकाओ के निर्माण केलिए आवश्यक है। आयरन की कमी से अनीमिया (रक्ताल्पता) हो सकता है जो कि विकासशील देशों में बहुत ही सामान्य है।
कैल्शियम- मजबूत हड्डियों और दांतों के लिए कैल्शियम आवश्यक है। इसके अलावा रक्त का क्लाट (थक्का) बनाने के लिए भी यह आवश्यक है। कैल्शियम शरीर में विभिन्न मांसपेशियों के संकूचन में भी मदद करता है। कैल्शियम के बिना हमारी मांसपेशियां अतिसंवेदनशील  हो जाती हैं। यदि आपकी खुराक में दुग्ध उत्पाद शामिल नहीं है तो कैल्शियम की गोलियां लें जिनमें विटामिन दी और सी भी शामिल हो क्योंकी ये विटामिन हड्डियों को बनाने के लिए आवश्यक है।
पानी- पोषक तत्वों के अलावा हमें पानी और ऑक्सीजन की जरूरत भी होती है। हमारे शरीर की सभी महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं में जैसे कि पाचन, संचरण और मल- विसर्जन – में पानी की जरूरत होती है। हमारे शरीर के ताप- नियमन में भी पानी की भूमिका होती है। पानी कैलोरी- मुक्त होता है, इसलिए हम भी को हर दिन 8-10 गिलास पानी पीना चाहिए।

Monday, 9 March 2015

रजोनिवृत्ति के लक्षण


रजोनिवृत्ति से अनेक लक्षणों का संबंध जोड़ा जाता है। डिम्ब ग्रंथि के कार्य की क्षति से होने वाले लक्षणों और उम्र बढऩे की प्रक्रिया से होने वाले या प्रौढ़ जीवन के वर्षों के सामाजिक वातावरणगत तनावों से पैदा होने वाले लक्षणों के बीच अक्सर कम ही भेद किया जाता है। उम्र बढऩे के प्रभावों और रजोनिवृत्ति के प्रभावों के बीच भेद करना तो खास तौर पर कठिन है।
रजोनिवृत्ति के सामान्य लक्षण इस प्रकार हैं-

हॉट फ्लश (उत्तापन या उत्तेजना)

हॉट फ्लश यानी अचानक उत्तापन और उत्तेजना और रात को पसीने से तरबदर हो जाना- ये शरीर की ताप-नियमनकारी प्रणाली में आने वाले विध्न हैं जो रजोनिवृत्ति की विशेषता हैं।
उत्तापन या उत्तेजना में चेहरे, गर्दन और छाती में अचानक गर्मी महसूस होने लगती है। इसका संबंध त्वचा के फैले हुए या चकत्तेदार रूप में लाल होने, अत्यधिक पसीना आने और अक्सर धडकन बढ़ जाने, चिडचिडापन और सिरदर्द से है। शुरू में शरीर के ऊपरी भाग में गर्मी महसूस होती है और फिर वह पूरे शरीर के ऊपर से नीचे तक फ़ैल जाती है। इस उत्तेजना का संबंध शारीरिक बेचैनी से है और यह लगभग 3 मिनट तक रहती है।
जो महिलाएं दोनों डिम्ब ग्रंथियों को शल्य चिकित्सा द्वारा निकलवा कर उत्प्रेरित रजोनिवृत्ति प्राप्त करती हैं,उनमें स्वाभाविक रजोनिवृत्ति वाली महिलाओं की तुलना में यह उत्तेजना अधिक गंभीर और तीव्र होती है।
ये वैसोमीटर यानी वाहिका उत्प्रेरक संबंधी लक्षण हार्मोनों से संबंधित हैं और कुछ सप्ताहों से ले कर कुछ वर्षों तक बीच-बीच में हो सकते हैं।
रजोनिवृत्ति के तत्काल पहले की अवधि में मासिक धर्म संबंधी परिवर्तन अधिकतर महिलाओं में रजोनिवृत्ति की ओर बढऩे का पहल संकेत होता है मासिक धर्म के चक्र में बदलाव आना। रजोनिवृत्ति की ओर बढऩे के दौरान मासिक धर्म के रूप में बदलाव आता है। खून का निकलना अनियमित हो जाता है जिसका कारण हार्मोन स्तर में होने वाले उतार-चढ़ाव होते हैं। कुछ महिलाओं की माहवारी अचानक रूक जाती है। कुछ महिलाओं को माहवारी पहले से अधिक बार होने लगती है, कुछ अन्य महिलाओं को बीच-बीच में मासिक धर्म नहीं होता या काफी देर के बाद होता है, कुछ महिलाओं के मामले में माहवारी की अवधि छोटी हो जाती है, और खून भी कम निकलता है या फिर थक्कों के साथ काफी गाढ़ा खून निकलता है। इस तरह का उतार-चढ़ाव रजोनिवृत्ति से पूर्व एक वर्ष या उससे भी अधिक समय तक आते रह सकते हैं पर इस अवधि में खून बहने और किसी संभावित रूप से गंभीर वजह से खून बहने के बीच अंतर करना जरूरी है। इसलिए रजोनिवृत्ति से तत्काल पहले की अवधि में महिला के लिए जाँच कराना जरूरी है ताकि खून बहने के अगर कोई रोग- संबंधी कारण हों तो उनका पता लगाया जा सके।
प्रौढ़ आयु की, अनियमित मासिक धर्म वाली महिलाओं को गर्भधारण का खतरा तब तक बना रहता है, जब तक कि उन्हें औसतन 24 महीने तक मासिक धर्म न हो।

रजोनिवृत्ति के बाद खून बहना

रजोनिवृत्ति के एक वर्ष बाद योनि से खून निकलने को उत्तर - रजोनिवृत्ति रक्तस्राव कहते हैं। इस रक्तस्राव के अनेक कैंसरकारी और गैर कैंसरकारी कारण हो सकते हैं। रजोनिवृत्ति के बाद योनि से खून बहने के महत्वपूर्ण असाध्य (कैंसरकारी) कारण इस प्रकार हैं- गर्भाशय की ग्रीवा (सर्विक्स) का कैंसर, एंडोमीट्रियम (गर्भाशय अस्तर) का कैंसर, योनि का कैंसर, डिम्बग्रन्थि का कैंसर। अत: रजोनिवृत्ति  के एक वर्ष बाद योनि से किसी भी प्रकार का रक्तस्राव हो तो उसकी पूरी जाँच जरूरी है यह जानने के लिए कि वह घातक तो नहीं है।
इसके लिए निम्न प्रकार की जांचें की जाती हैं:
कॉल्पोस्कोपी-गर्भाशय की ग्रीवा और पीछे की ओर वाली योनि की फोर्निक्स के लिए पेप स्मियर जाँच
गर्भाशय की ग्रीवा की बायोस्पी - आंशिक क्यूरेटेज (मूत्र अस्तर के टुकड़ों की हिस्टोपैथिलौजी द्वारा जाँच)
यदि डिम्ब ग्रंथि में मेलिग्नेंसी का संदेह हो तो अल्ट्रासोनोग्राफी और लेप्रोस्कोपी इस जाँच से जो पता चले उसके आधार पर जननांग के असाध्यकारी या साध्यकारी रोगों का इलाज किया जाना चाहिए।
यौन कार्य में विध्न - एस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरोन और टेस्टोस्टेरॉन हार्मोंन का स्तर निम्न हो जाने के कारण कुछ महिलाओं की यौन दिलचस्पी कम हो जाती है। योनि के सूखेपन और अल्प संवहन के कारण, तथा बाद में योनि अस्तर के पतला हो जाने और योनि की क्षीणता की वजह से संभोग के दौरान दर्द होता है।
मूत्र संबंधी लक्षण - बढ़ती उम्र की महिलाओं में मूत्र संबंधी समस्याएँ समान्य बात हैं और वे रजोनिवृत्ति से तत्काल पहले के चरण में सामने आ सकती हैं। पेशाब जोर से आना, बार- बार आना, पेशाब रोकने में कठिनाई, आदि जैसे लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं। एस्ट्रोजन की कमी से मूत्र पथ संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।

Sunday, 8 March 2015

महिला सशक्तिकरण हालात कहां बदले हैं


भारतीय समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान रहा है। यहां महिलाओं को हमेशा से दूसरे दर्जे का माना जाता है। पहले महिलाओं के पास अपने मन से कुछ करने की सख्त मनाही थी। परिवार और समाज के लिए वे एक आश्रित से ज्यादा कुछ नहीं समझी जाती थीं। ऐसा माना जाता था कि उसे हर कदम पर पुरुष के सहारे की जरूरत पड़ेगी ही।
लेकिन अब महिला उत्थान को महत्व का विषय मानते हुए कई प्रयास किए जा रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में महिला सशक्तिकरण के कार्यों में तेजी भी आई है। इन्हीं प्रयासों के कारण महिलाएं खुद को अब दकियानूसी जंजीरों से मुक्त करने की हिम्मत करने लगी हैं। सरकार महिला उत्थान के लिए नई-नई योजनाएं बना रही हैं, कई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं।
आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं। बिजनेस हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व है, अधिकार है।
जैसे ही उन्हें शिक्षा मिली, उनकी समझ में वृद्धि हुई। खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच और इच्छा उत्पन्न हुई। शिक्षा मिल जाने से महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा और घर के बाहर की दुनिया को जीत लेने का सपना बुन लिया और किसी हद तक पूरा भी कर लिया।
लेकिन पुरुष अपने पुरुषत्व को कायम रख महिलाओं को हमेशा अपने से कम होने का अहसास दिलाता आया है। वह कभी उसके सम्मान के साथ खिलवाड़ करता है तो कभी उस पर हाथ उठाता है। समय बदल जाने के बाद भी पुरुष आज भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना पसंद नहीं करते, उनकी मानसिकता आज भी पहले जैसी ही है। विवाह के बाद उन्हे ऐसा लगता है कि अब अधिकारिक तौर पर उन्हें अपनी पत्नी के साथ मारपीट करने का लाइसेंस मिल गया है। शादी के बाद अगर बेटी हो गई तो वे सोचते हैं कि उसे शादी के बाद दूसरे घर जाना है तो उसे पढ़ा-लिखा कर खर्चा क्यों करना। लेकिन जब सरकार उन्हें लाड़ली लक्ष्मी जैसी योजनाओं लालच देती है, तो वह उसे पढ़ाने के लिए भी तैयार हो जाते हैं और हम यह समझने लगते है कि परिवारों की मानसिकता बदल रही है।
दुर्भाग्य की बात है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उन्हें अपनाती हैं। वे अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की इतनी आदी हो चुकी हैं की अब उन्हें वहां से निकलने में डर लगता है। वे उसी को अपनी नियति समझकर बैठ गई हैं।
हम खुद को आधुनिक कहने लगे हैं, लेकिन सच यह है कि मॉर्डनाइज़ेशन सिर्फ हमारे पहनावे में आया है लेकिन विचारों से हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। आज महिलाएं एक कुशल गृहणी से लेकर एक सफल व्यावसायी की भूमिका बेहतर तरीके से निभा रही हैं। नई पीढ़ी की महिलाएं तो स्वयं को पुरुषों से बेहतर साबित करने का एक भी मौका गंवाना नहीं चाहती। लेकिन गांव और शहर की इस दूरी को मिटाना जरूरी है।

Friday, 6 March 2015

आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक है होली


भारत संस्कृति में त्योहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ पर मनाये जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। भारत में त्योहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना होता है। यही कारण है कि भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं। होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसकी लोग बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं।

भारतीय संस्कृति का परिचायक है 'होलीÓ

होली को लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता, भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रुप में जोड़कर, पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था ओर उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात् कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्ज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्ज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।

'होलिकाÓ का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत

होली भारत के सबसे पुराने पर्वों में से एक है। होली की हर कथा में एक समानता है कि उसमें 'असत्य पर सत्य की विजयÓ और 'दुराचार पर सदाचार की विजयÓ का उत्सव मनाने की बात कही गई है। इस प्रकार होली मुख्यत: आनंदोल्लास तथा भाई-चारे का त्यौहार है। यह लोक पर्व होने के साथ ही अच्छाई की बुराई पर जीत, सदाचार की दुराचार पर जीत व समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता व दुश्मनी को भूलकर एक-दूसरे के गले मिलते हैं और फिर ये दोस्त बन जाते हैं। राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व बसंत का संदेशवाहक भी है। किसी कवि ने होली के सम्बन्ध में कहा है-
नफऱतों के जल जाएं सब अंबार होली में,
गिर जाये मतभेद की हर दीवार होली में।
बिछुड़ गये जो बरसों से प्राण से अधिक प्यारे,
गले मिलने आ जाएं वे इस बार होली में।

होली का आधुनिक रूप

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-ख़ुशी का त्यौहार है लेकिन आज होली के भी अनेक रूप देखने  को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भंग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक-संगीत की जगह फिल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप है। पहले जमाने में लोग टेसू और प्राकृतिक रंगों से होली खेलते थे। वर्तमान में अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में लोगों ने बाज़ार को रासायनिक रंगों से भर दिया है। वास्तव में रासायनिक रंग हमारी त्वचा के लिए काफी नुकसानदायक होते हैं। इन रासायनिक रंगों में मिले हुए सफेदा, वार्निश, पेंट, ग्रीस, तारकोल आदि की वजह से खुजली और एलर्जी होने की आशंका बढ़ जाती है इसलिए होली खेलने से पूर्व हमें बहुत सावधानियाँ बरतनी चाहिए। हमें चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाये रखते हुए प्राकृतिक रंगों की ओर
लौटना चाहिए।

होली पर्व का मुख्य उद्देश्य मानव कल्याण ही है

होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुई हैं पर अंतत: इस पर्व का उद्देश्य मानव-कल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, कि़स्से-कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। होली को आपसी प्रेम एवं एकता का प्रतीक माना जाता है। होली हमें सभी मतभेदों को भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाने की प्रेरणा प्रदान करती है। इसके साथ ही रंग का त्यौहार होने के कारण भी होली हमें प्रसन्न रहने की प्रेरणा देती है इसलिए इस पवित्र पर्व के अवसर पर हमें ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि बुराइयों को दूर भगाना चाहिए। वास्तव में हमारे द्वारा होली का त्यौहार मनाना तभी सार्थक होगा जब हम इसके वास्तविक महत्व को समझकर उसके अनुसार आचरण करें। इसलिए वर्तमान परिवेश में जरूरत है कि इस पवित्र त्यौहार पर आडम्बर की बजाय इसके पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण होगा। 

होली खेले पर जऱा सावधानी से

होली की मस्ती से वैसे तो चूकना नहीं चाहिए पर होली खेलने से पहले कुछ सावधानियां अगर बरत ली जायें तो त्वचा और रासायनिक रंगों से होने वाले नुकसान से काफ़ी हद तक बचा जा सकता है। एक पुराना समय था जब लोग हल्दी, चदंन, गुलाब और टेसू के फूल से रंग बनाया करते थे पर आजकल तो रासायनिक रंगों का ही बोलबाला है। ऐसे मे सावधानी बरतना बहुत ज़रूरी है। ऐसे रंगों मे कई तरह के रासायनिक और विषैले पदार्थ मिले होते हैं, जो त्वचा, नाखून व मुंह से शरीर मे प्रवेश कर अदंरूनी हिस्सों को क्षति पहुंचा सकते हैं। चलिए जानते हैं कि होली खेलने से पहले हमें क्या-क्या सावधानियां बरतने की जरुरत है-
1. होली के दिन आप पूरे शरीर को ढकने वाले कपड़े पहनिए। अच्छा होगा कि कपड़े के अंदर कोई स्विमिंग सूट पहन लें जिससे होली का रसायनयुक्त रंग अंदर जाने से बच जाए।
2. होली खेलने से पहले अपने शरीर पर खूब सारा तेल या फिर मॉइस्चाराइजऱ लगाएं और 15 मिनटों तक उसे अपने शरीर द्वारा सोखने दें। इसके बाद अपने शरीर पर वाटरप्रूफ सनस्क्रीन लगा कर होली खेलने निकल पड़ें।
3. इस दिन बालों पर विषेश ध्यान देना जरुरी है। अपने बालों पर एक अच्छा तेल लगाएं जिससे नहाने के समय बालों पर रंग चिपके ना और आसानी से धुल भी जाए। चाहें तो टोपी भी पहन सकते हैं। तेल के अलावा अपने होंठों को हानिकारक रंगों से बचाने के लिए उस पर लिपबाम लगाना न भूलें।
4. नाखूनों पर जब रंग चढ़ जाते हैं तो जल्दी साफ नहीं होते। इसके लिए नाखूनों और उसके अंदर भी वैसलीन लगाएं। इससे नाखूनों और उसके अंदर रंग नहीं चढेगा। इसके अलावा महिलाएं नेलपॉलिश भी लगा सकती हैं।
5. जब भी रंग खरीदने जाएं तो कोशिश हमेशा यही होनी चाहिए कि हरा, बैगनी, पीला और नारंगी रंग न लेकर लाल या फिर गुलाबी रंग खरीदें। वह इसलिए क्योंकि इन सब गहरे रंगों में ज्यादा रसायन मिले हुए होते हैं।
6. अपनी आखों का विशेष ध्यान रखें। आंखों को रंग, गुलाल, अबीर आदि से बचाएँ क्योंकि इनमें मौजूद पोटेशियम हाईक्रोमेट नामक हानिकारक तत्व आंखों को काफी नुकसान पहुंचा सकता है। यदि कुछ रंग आँख मे चला जाए तो आंखों को तब तक पानी से धोएं जब तक रंग ठीक से निकल न जाए।
7. रंग खेलने के बाद त्वचा रुखी हो जाती है, तो इसके लिए शरीर पर मलाई या बेसन का पेस्ट बना कर लगाया जा सकता है। जिन व्यक्तियों के शरीर पर कोई घाव या चोट आदि है तो उन्हें होली नहीं खेलनी चाहिए। इससे रंगों में मिले रासायनिक तत्व घाव के माध्यम से शरीर के रक्त में मिलकर नुकसान पहुंचा सकते हैं। अगर आप यह उपरोक्त सावधानियां बरतते हुए होली खेलेगें तो आपकी होली इस साल की सबसे अच्छी और सुरक्षित होली कहलाएगी।

Tuesday, 3 March 2015

रजोनिवृत्ति एक समस्या


रजोनिवृत्ति किसी भी महिला के जीवन में घटने वाली एक स्वभाविक घटना है। रजोनिवृत्ति का अर्थ है- डिम्बग्रन्थियों के कार्य में कमी के कारण मासिक धर्म का स्थायी रूप से रूक जाना।  यह स्थिति डिम्ब ग्रंथियों द्वारा हार्मोंस एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरान के उत्पादन में कमी आने का परिणाम होती है।
रजोनिवृत्ति होने पर क्या-क्या बदलाव आते हैं?
डिम्ब ग्रंथियों के काम न करने की वजह से रजोनिवृत्ति के समय महिला में अनेक परिवर्तन आते हैं। रजोनिवृत्ति से तत्काल पहले की अवधि और रजोनिवृत्ति के बाद की अवधि में अनेक हार्मोन संबंधी बदलाव आते हैं जो इस प्रकार हैं-
  • रक्त का एस्ट्रोजन स्तर कम हो जाता है।
  • रक्त में फोलिकल्स उत्प्रेरक हार्मोंस में उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है।
  • ल्यूटिनाइजिंग हार्मोंस की संख्या में वृद्धि हो जाती है।
  • टेस्टोस्टेरोन का स्तर गिर जाता है क्योंकि डिम्ब ग्रंथि इसका केवल 50प्रतिशत ही उत्पादित कर पाती है।
  • प्रोजेस्ट्रान हार्मोंस का स्तर अलग- अलग भी हो सकता है, और अलग-अलग नहीं भी हो सकता। इन हार्मोंस का स्तर दिन के समय, रजोनिवृत्ति के प्रकार, रजोनिवृत्ति के बाद के वर्षों की संख्या के अनुसार अलग-अलग हो सकता है।

रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में अन्य शरीरिक बदलाव

ये बदलाव क्रमिक रूप से और गुपचुप तरीके से होते हैं तथा अलग- अलग व्यक्तियों को अलग-अलग हो सकते हैं। ये बदलाव मुख्य रूप से एस्ट्रोजन की कमी की वजह से होते हैं।
  • एस्ट्रोजन की कमी की वजह से त्वचा धीरे-धीरे अपने सब-क्यूटेनीयस वसा को त्यागने लगती हैं, और झुर्रीदार हो जाती है।
  • बाल सफेद होने लगते हैं और कभी- कभी एंड्रोजन (पुरूष हार्मोन) की सापेक्ष प्रमुखता की वजह से बालों का अत्यधिक उगना भी देखने में आता है।
  • स्तन-ऊतक में कमी आने से स्तनों की कठोरता कम हो जाती है।
  • जननांग क्षेत्र में वसा में कमी होने लगती है।
  • योनि-छिद्र संकुचित हो जाता है और योनि की झिल्ली पतली हो कर सूख जाती है। इससे यौन कार्य अधिक कठिन और कभी-कभी तो कष्टपूर्ण हो जाता है।
  • योनि संबंधी बदलावों की वजह से बेक्टीरिया का संक्रमण अधिक आसानी से हो सकता है।
  • गर्भाशय और उसकी ग्रीवा (सर्विक्स) धीरे - धीरे सिकुडऩे लगते हैं।
  • ग्रीवा-ग्रंथियां (सर्वाइकल ग्लैंड्स) स्राव छोडऩा बंद कर देती हैं।
  • गर्भाशय का अस्तर सूखने या घुलने लगता है।
  • कूल्हे का कोशिकीय ऊतक-अवलम्ब शिथिल पड़ जाता है इससे मूत्राशय और जननांग क्षेत्र में कम या अधिक मात्रा में अपकर्ष होता है।
  • मूत्र मार्ग और मूत्राशय में होने वाले परिवर्तनों से निचले मूत्र- पथ के संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है।
  • डिम्ब ग्रंथियां सिकुड़ जाती हैं और उनकी त्वचा खांचेदार बन जाती है।
  • मुख्यत: मेरुदंड और कूल्हे के घेरे में क्रमिक रूप से ऑस्टेओपोरेसिसी (यानी हड्डियों की क्षति) होने लगता है।

रजोनिवृत्ति की आयु

रजोनिवृत्ति की आयु भौगोलिक, नस्लीय, पोषण संबंधी और अन्य कारणों से अलग-अलग महिलाओं में अलग-अलग हो सकती है।
भारत और अन्य विकासशील देशों में रजोनिवृत्ति की औसत आयु 45 से 50 वर्ष के बीच होती है।
जो महिलाओं धूम्रपान करती हैं, जिन्होने कभी गर्भधारण नहीं किया और जो निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आती हैं,। उनकी रजोनिवृत्ति कम आयु में होने की संभावना रहती है। हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि जिन महिलाओं की माहवारी का चक्र 26 दिन से कम का होता है उनकी रजोनिवृत्ति अधिक लम्बे माहवारी चक्र वाली महिलाओं की तुलना में 1.4 वर्ष पहले हो जाती है रजोनिवृत्ति की अधिक आयु का सम्बद्ध दीर्घ आयु से जोड़ा जा सकता है। अधिकतर रिपोर्ट यह दर्शाती हैं कि विकसित देशों की महिलाओं से विकाशील देशों की महिलाओं की आयु प्रथम माहवारी के समय अधिक तथा रजोनिवृत्ति के समय कम होती है।

रजोनिवृत्ति की जानकारी

नियमित मासिक धर्म चक्र से लेकर मासिक धर्म के रूक जाने तक का सफर एकाएक खत्म हो जाए। ऐसा बिरले ही मामलों में होता है। ज्यादातर महिलाओं को पता चल जाता है कि रजोनिवृत्ति का वक्त नजदीक आ गया है। माहवारी के चक्र में बदलाव आने के साथ ही वे यह समझ लेती हैं। माहवारी में बदलाव का मतलब है कि वह नियमित न हो कर कभी-कभी हो या फिर काफी देर के बाद हो या खून चकतों के साथ काफी भारी मात्रा में हो।
रजोनिवृत्ति से जुड़े विभिन्न प्रमुख पहलुओं को दर्शाने वाले विभिन्न शब्द/शब्द समूह इस प्रकार हैं-
  • स्वाभाविक मेनोपॉज अर्थात रजोनिवृत्ति का अर्थ है डिम्ब ग्रंथियों के कार्य में कमी की वजह से माहवारी का स्थायी रूप से समाप्त हो जाना। यह माना जाता है कि स्वभाविक रजोनिवृत्ति लगातार बारह महीनों तक मासिक धर्म न होने के बाद होती है और इसका कोई अन्य स्पष्ट रोग वैज्ञानिक अथवा शारीरिकक्रिया वैज्ञानिक कारण नहीं होता।
  • पेरिमेनोपौज अर्थात रजोनिवृत्ति से तत्काल पहले की अवधि (जब रजोनिवृत्ति के नजदीक आने के लक्षण शुरू होते हैं) और रजोनिवृत्ति के बाद का एक वर्ष।
  • मेनोपॉज ट्रांजीशन अर्थात रजोनिवृत्ति संक्रमण अंतिम माहवारी की अवधि से पहले की अवधि को कहते हैं जब मासिक धर्म चक्र की अस्थिरता अक्सर बढ़ जाती है। संक्रमण का यह दौर औसतन 3 से 4 वर्ष तक का रहता है।
  • सर्जिकल मेनोपॉज अथवा अभिप्रेरित रजोनिवृत्ति का अर्थ है दोनों डिम्ब ग्रंथियों (गर्भाशय हटाने के साथ या उसके बिना) को शल्य चिकित्सा द्वारा निकाल देने या किमोथैरोपी अथवा रेडिएशन से डिम्ब ग्रंथियों के कार्य में चिकित्सा हस्तक्षेप करने के बाद माहवारी समाप्त होना।
  • सिंपल (सरल) हिस्ट्रेक्टामी (यानी गर्भाशय को हटाना)- इसमें केवल गर्भाशय को या एक डिम्ब ग्रंथि को हटाया जाता है।
  • पोस्ट मेनोपॉज यानी रजोनिवृत्ति- के बाद का समय। इसे अंतिम माहवारी के अवधि के बाद की अवधि के रूप में परिभाषित किया जाता है चाहे रजोनिवृत्ति प्रेरित हो या स्वभाविक हो।
  • समय से पहले रजोनिवृत्ति को ऐसी रजोनिवृत्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जो औसत अनुमानित रजोनिवृत्ति की आयु से कम आयु में होती है।
  • उदाहरण के लिए, विकाशील देशों में 40 वर्ष के आयु में रजोनिवृत्ति की आयु मान लिया जाता है। जिन महिलाओं को इस पहले रजोनिवृत्ति हो जाए उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें समय से पहले रजोनिवृत्ति (प्रीमेच्योर मेनोपॉज) हो गई है।